Thursday, 11 December 2025

नैतिकता का दंड या कुंठित समाज का खेल?

आज समाज की दशा यह है कि दूसरों की खुशी हमें चुभने लगी है और दूसरों के दुःख में हमें आनंद प्राप्त होता है। सोचिए—एक पड़ोसी अपने घर में उत्सव मना रहा है, कोई मित्र अपनी सफलता का जश्न मना रहा है, और हम अपने भीतर की अधूरी इच्छाओं, असंतोष और कड़वाहट को उनकी मुस्कान पर उंडेल रहे हैं। कभी कहा जाता था कि शत्रु भी पर्व-त्योहार पर विराम ले लेता है, पर आज हमारी मानसिकता ऐसी हो गई है कि दूसरों की प्रसन्नता ही हमें खटकने लगी है। इसी बेरहम मानसिकता की भेंट चढ़ी है इंद्रेश उपाध्याय जी की शादी—जिस दिन उनके जीवन का सबसे सुंदर क्षण होना चाहिए था, उस दिन हमने समाज के रूप में अपनी ही खोखली मानसिकता का प्रदर्शन कर दिया।


पिछले चंद दिनों में जिस तरह से उनकी ट्रोलिंग और आलोचना हुई, वह केवल उनके व्यक्तित्व का नहीं, हमारी आत्मा का एक्सपोज़र है। हमने यह दिखा दिया कि हम दूसरों के सुख में असहिष्णु और दूसरों के दुःख में प्रफुल्लित होना सीख चुके हैं। स्मृति मंधाना की शादी टूटी तो उनके पुराने वीडियो वायरल किए गए; अब वही मानसिकता इंद्रेश जी के साथ लागू हो रही है। जिस दिन उन्हें आशीर्वाद और दुआओं की जरूरत थी, उस दिन हमने अपने भीतर की जलन और कड़वाहट का परिचय दिया।

इंद्रेश उपाध्याय कौन हैं? कोई फिल्मी सितारा, अरबपति, उद्योगपति या राजनेता नहीं। वे एक सौम्य, विनम्र गृहस्थ-कथावाचक हैं। उनके पिताजी ने जीवन भर कथा कही और वही संस्कार उनके भीतर पले-बढ़े। पर समाज ने उनके विवाह को तमाशा बना दिया—हेलीकॉप्टर उतरा, सजावट महंगी, होटल भव्य!—यह प्रश्न नहीं है। समस्या यह है कि धर्म से जुड़े व्यक्ति का सुख और सम्मान हमारी आँखों में खटकता है।

इस देश के खिलाड़ी दो-दो, तीन-तीन विवाह कर लेते हैं, करोड़ों खर्च कर देते हैं, खुलेआम अनैतिक जीवनशैली अपनाते हैं—और हम उन्हें आदर्श मानते हैं। बॉलीवुड सितारे फूहड़ता, नशा, ड्रग्स, बहुविवाह और खुले संबंध अपनाते हैं—फिर भी हमारे आइडल बन जाते हैं। पर कथावाचक यदि सामान्य गृहस्थ जीवन में खुशी ले, अच्छे कपड़े पहनें, परिवार के साथ जीवन जिए, तो वही समाज नैतिकता का डंडा उठा देता है।

सबसे विषैले हमले उनके निजी जीवन, उनकी पत्नी के अतीत और परिवार पर किए गए। किसी स्त्री के संघर्ष, उसके दुःख, उसके निर्णय—यह सब हमने कंटेंट बनाकर वायरल किया। क्या हमें इस बात का ज्ञान है कि वास्तविकता क्या है? नहीं। फिर भी हम न्यायाधीश बन बैठे हैं।

पुरानी कथाएँ, पुराने ऑडियो, पुराने बयान—इन सबको काट-छाँट कर प्रस्तुत कर दिया गया। क्या हम यह सोचते हैं कि कोई भी मानव अपने जीवन में अपरिपक्व क्षण नहीं बिताता? विचार समय के साथ बदलते हैं, पर समाज ने तय कर दिया कि उनके दो पुराने वाक्यों से पूरी जिंदगी की छवि तय होगी। यही समाज की नैतिक गिरावट है।

कथावाचक समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचते हैं। वे अपने यजमान से कमाते हैं, हम नहीं देते। कोई अपनी धनराशि से यात्रा करता है, दान करता है, कथा करवाता है—यह उसका अधिकार है। परंतु कथावाचक पर सवाल उठाना, उनके निजी जीवन पर तीर चलाना, उनकी पत्नी और परिवार पर निशाना साधना—यह समाज की नैतिकता नहीं, केवल भीतर की खोखली कुंठा है।

धर्म मंच से नहीं मरता। धर्म तब मरता है जब किसी की खुशी देखकर हमारे भीतर शांति नहीं बचती। आज हमने इंद्रेश जी के सबसे पवित्र दिन को अपवित्र बनाने का प्रयास किया। कल यही भीड़ किसी और घर पर हमला करेगी। और जिस दिन यह लक्ष्य हमारा परिवार होगा, यह भीड़ हमारे साथ नहीं होगी।

इंद्रेश उपाध्याय कोई सन्यासी नहीं, बल्कि सामान्य गृहस्थ कथावाचक हैं। उन्हें उतना ही सुख, सम्मान और गरिमा का अधिकार है जितना हमें। यदि उनकी खुशी हमें चुभती है, समस्या उनके सुख में नहीं—हमारी सोच में है।

अपनी सोच बदलिए। अपनी कुंठा त्यागिए। और दूसरों को जीने दीजिए। यही समाज का सबसे बड़ा धर्म है।

इंद्रेश जी और उनकी पत्नी को हमारी ओर से हार्दिक शुभकामनाएँ। सुखी रहें, प्रसन्न रहें और समाज भी कम से कम इतना तो समझे कि किसी की खुशी अपराध नहीं होती।

जय माँ भारती


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