Sunday 18 December 2011

उधारी बंद


इच्छा – उठो, उठो। क्या सरकार की तरह हर समय सोते रहते हो। कभी तो कुछ काम भी कर लिया करो।
विकास – उठ गया भाग्यवान। सो नहीं सोच रहा था, विश्वास रखो।
इच्छा – एक बार विश्वास किया तो अभी तक भुगत रही हूं, वैसे किसी ने सही ही कहा है, विश्वास में ही विष का वास होता है।
विकास – क्या बोल रही हो?
इच्छा – बस। उठो। बिजली का भी बिल नहीं भरा है। अंधकार में जी रहे हैं। उफ! फिर सो गए। पूरे नेता हो गए हो। कितना भी सुना लो कोई असर नहीं।
विकास – क्या?
इच्छा – कुछ नहीं। सो जाओ।
विकास – सोया कहां हूं? चाय पिला दो।
इच्छा – घर में चाय की पत्ती भी नहीं है।
विकास – चाय नहीं तो उठूंगा कैसे?
इच्छा – जिस तरह से तुम घर को देश की तरह चला रहे हो, एक दिन हम भी उठ जाएंगे…
विकास – गरम पानी ही पिला दो, शायद उससे ही स्फूर्ति आ जाए। ये पानी भी क्या गजब चीज है? ऐसा लगता है कि ईश्वर ने हम लोगों के लिए ही बनाई है। हल्दी डाल दो तो दाल का काम करती है, वैसे ही पी लो तो चाय का काम करती है।
इच्छा – उफ! रुको लाती हूं। प्लीज अब मत सो जाना।
विकास – नहीं भाग्यवान नहीं। मेरी मजाल कि तुम्हारे रहते चैन की नींद ले लूं।
इच्छा - ये लीजिए, पीजिए और प्रवीण के यहां से सामान ले आइए जल्दी।
विकास – जल्दी ही जा रहा हूं। अब पानी भी चैन से पीने दोगी कि नहीं? गरम पानी में भी किट-किट। लाओ थैला लेकर आओ।
इच्छा – थैला किसलिए? किस जमाने में हैं आप? इसलिए कहती हूं कि कभी कभार घर का काम करते रहेंगे तो पता चलेगा कि महंगाई आबादी की तरह हर पल बढ़ रही है।
विकास – अरे यार! हर समय पत्रकारों की तरह उट पटांग मत बोला करो।
इच्छा – वो कागज की पुडिय़ा देगा, लेकर आ जाइएगा। अब जाइए।
विकास – आता हूं।
इच्छा – ठीक से जाइएगा। बच्चे क्रिकेट खेलते हैं बॉल न लग जाए। सड़क पर ध्यान रखिएगा। कार या बस न टक्कर मार दे। किसी पेड़ या किसी इंसान से मत टकरा जाना…..
(टहलते हुए हम प्रवीण की दुकान पर जा पहुंचे)
प्रवीण – अंकल जी नमस्कार।
विकास – खुश रहो।
(हम सदा बड़प्पन दिखाते हैं और आशीर्वाद दे देते हैं। कभी भी हम दान पुण्य में पीछे नहीं रहे)
प्रवीण – अंकल जी क्या सेवा करुं?
विकास – ये लो आपकी आंटीजी ने लिस्ट दी है। संडे को भी घर की ड्यूटी करते हैं।
प्रवीण – हा..हा…ह.ह.
विकास – अब लाद के ले जाएंगे घर।
प्रवीण – अरे कैसी बात कर दी। मैं किसी लड़के को भेज दूंगा।
विकास - अरे… ठीक है।
प्रवीण - अंकल जी एक बात पूछनी थी और समझनी थी।
विकास – पूछो।
प्रवीण – ये एफडीआई से मेरी परचून की दुकान बंद हो जाएगी क्या?
विकास – हा.. हा.. ह.ह. नहीं बंद क्यों होगी? तुम्हे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जो अच्छा काम करेगा उसका व्यापार अच्छा चलेगा।
प्रवीण – हं.. पर विदेशी कंपनियां तो काफी बड़ी होंगी।
विकास – हां तो उससे क्या?
प्रवीण – वो तो अधिक तादात में सामान खरीदेंगी। तो उन्हें सस्ता मिलेगा।
विकास – हां.. तो तुम भी खरीदो।
प्रवीण – हं.. टीवी वाले बोल रहे थे.. वो पांच-छह साल तक नुकसान सह सकती हैं।
विकास – हां.. तुम भी मुनाफा कम कर देना। बदमाश.. कितना कमाया है तुमने हमसे।
प्रवीण - अंकल जी .. पर वो तादात में लेंगे तो उन्हें वैसे ही सस्ता मिलेगा। उसमें भी वे कम दाम में बेचेंगे तो मैं किस दाम पर बेचूं्ंगा?
विकास – तुम भी उनकी तरह प्रोफेशनल हो ना… इससे तुम्हें भी फायदा होगा… हम जैसे ग्राहकों को भी। मेरी मानो किताबें पढ़ा करो। ज्ञान मिलेगा। प्रोफेशनल हो जाओ। भविष्य के लिए अच्छा होगा।
प्रवीण – हं..
विकास - अब हं छोड़ो… सामान घर पर पहुंचवा देना..
प्रवीण – विकास पहले की उधारी चुकाओ प्लस होम डिलीवरी चार्ज भी लगेगा।
विकास – अंकलजी से सीधे विकास.. और उधारी भी बंद? बेटा उधार बंद होगा तो घर कैसे चलेगा…
प्रवीण – आपने ही तो कहा, प्रोफेशनल हो जाओ…
विकास – हूं..
(प्रवीण प्रोफेशनल हो गया और हम इमोशनल हो गया)

Saturday 15 October 2011

दस के चार

अहा.. एक और नई सुबह एक और नया दिन। एक और नया दिन संघर्ष के लिए बुलाता हुआ। मैं तैयार नहीं था शारीरिक तौर पर। मानसिक रूप से तो मैं कल रात से ही तैयार था। मेरा शरीर टूट रहा था। दिमाग दर्द फटा जा रहा था। बस एक ही शक्ति थी जो मुझे प्रेरित कर रही थी, वो थी राकेश की पढ़ाई। शायद इसलिए ही लोग ऊपर वाले की ताकत पर यकीन करते हैं कि वो निढाल शरीर से भी काम करवा सकता है। भविष्य का सपना दिखाके। यही सोचते हुए कि राकेश का ये आखिरी साल है, फिर आराम से उम्र कट जाएगी, जो बची हुई है। मैं अपना एकमात्र प्रिय बैग कंधे पर डालकर लोकल ट्रेन में चढ़ गया। और 10 रुपए में चार बॉलपेन बेचना शुरू कर दिया। इसमें ज्यादा कमाई तो नहीं थी पर गुजारा चल जाता था। इतने सालों से ट्रेन में बेचता आ रहा हूं कि कई तो हर तनख्वाह पर मुझसे ही पेन खरीदते थे। उनमें से कई लोग मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, क्योंकि उनको मैंने अपनी आंखों के सामने बढ़ते देखा है। स्कूल से कॉलेज और अब ऑफिस उसी लोकल ट्रेन में। पर कई बार बड़ा दुखी होता था, जब बच्चे कई बार अपने आपको और माता-पिता को कोसते थे। कभी पूछो तो भरी हुई आवाज से कहते थे कि हमें पढ़ाया ही क्यों? हमें बचपन से कोई काम क्यों नहीं सिखाया। कम से कम सपने तो दफन हो जाते बचपन में और एक मंत्रमुग्ध करने वाली मुस्कान दे देते। मुझे गुस्सा आता पर मैं व्यक्त करता। कहीं मेरे हाथ से बंधे हुए ग्राहक न चले जाएं, क्योंकि हर (स्वार्थी) इंसान की तरह मुझे अपने जीवन से ज्यादा अपने ग्राहक प्यारे थे। और जो भी हो उनका अपना मामला है, मुझसे तो अच्छे से ही बात करते हैं। 10 रुपए के चार पेन .. 10 रुपए के चार पेन .. 10 रुपए के चार पेन … बोलते-बोलते रात की आखिरी लोकल ट्रेन से मैं आ गया कोलीवाड़ा। यही मेरी 10 बाय 10 की खोली है। हम सात दोस्त इसमें रहते हैं। बाहर के लोगों के लिए छोटी हो सकती है। पर हमारे लिए नहीं। यहां पर सात लोगों के सात परिवारों के सात सपने रहते हैं। जिसे खाली पेट में भी खोली बड़ी हसीन नजर आती है। बस यही अफसोस है 35 सालों में भी ये खोली घर नहीं बन पाई, क्योंकि हममें से कोई अपने परिवार के साथ नहीं रहता। मैं तकरीबन 15 साल का था, जब नौकरी करने बॉम्बे आया था। क्योंकि तब हमारे गांवों में काम नहीं था और आज भी। सच कहूं तो मैं यहां पर साहब बाबू बनने आया था, पर जब यहां आया तो पता चला कि 10वीं पास यहां चपरासी भी नहीं बन सकता। इसलिए मैं अपने लाल (राकेश) को कॉलेज करवा रहा हूं, वो भी बीएससी। जी हां बीएससी मैंने राकेश को आखिरी बार जब देखा था तो मात्र तीन महीने का था। उसके बाद मौका ही नहीं मिला। पैसे जोड़ते-जोड़ते आज वो बीएससी के आखिरी साल में आ गया। लेकिन ऐसा नहीं है कि मैं उसे नहीं जानता। वो लगातार खत भेजता रहता है और बताता रहता है कि हर दिन वो बड़ा हो रहा है और अम्मा बूढ़ी। चलिए यह बात यहीं खतम करता हूं, आंख में कुछ गिर गया है।
एक साल बाद-एकदम से ट्रेन रुकी और मेरा बेटा उतरा। आते ही उसने मेरे पैर छुए। और मुझ मूर्ख को समझ ही नहीं आया कि क्या करूं। मैं स्तब्ध खड़ा रहा। तीन महीने बच्चे से युवा का सफर कैसे निकल गया। और मैं देख भी न पाया। फिर दूसरे ही दिन से राकेश नौकरी ढूंढऩे लग गया। उसे मिलेगी। जरूर मिलेगी। क्योंकि नहीं मिलेगी। आखिर उसने बीएससी पास की है। बिल्कुल मिलनी चाहिए। वो थोड़ा परेशान रहने लगा है, मैं नहीं। मुझे यकीन है कि उसे नौकरी मिलेगी। मैं बिल्कुल भी चिंतित नहीं हूं। आज नहीं तो कल तो अवश्य ही उसे नौकरी मिल जाएगी। आखिर इतने सालों का संघर्ष हमारा व्यर्थ थोड़े ही जाएगा व ऊपर वाले के यहां देर है अंधेर थोड़े ही है। वह हमारे लिए भी कुछ करेगा। लेकिन अब कर ही दे। आंखों में मोतियाबिंद हो गया है। आंखें पूरी सफेद हों उससे पहले राकेश की नौकरी तो देख लूं। दिन से महीने हो गए हैं अब तो मुंबा देवी नौकरी तो दिला दें ये प्रार्थना कर सोच ही रहा था कि एक आवाज आई। बेहतरीन ऑफर, लाजवाब ऑफर। मुंबई में पहली बार 10 रुपए के पांच पेन। जी हां 10 के पांच पेन। एक बार लीजिए और पांच साल तक लिखिए। उस सख्श की आवाज में जोश था। जो शुरू में मेरी आवाज में हुआ करता था। मेरी अंदर जिज्ञासा जागृत हुई कि ये सख्श कौन है। भीड़ में से दूसरी तरफ देखा तो राकेश खड़ा पेन बेच रहा था। एकदम से चक्कर आया मैं और हमारे सपने कट गये….

चित्र www.google.com से लिया गया है।

Monday 14 February 2011

हमारा भी

विनती - हैप्पी वेलंटाइन डे।
प्रयास
- हैप्पीजी तो सिंह थे, वेलंटाइन कब से हो गए?
विनती - उफ्फ! गलती हो गई।
प्रयास - गलती नहीं, ये तो पाप है। मैं तो धर्म परिवर्तन के बिल्कुल खिलाफ हूं..
विनती - अरे बाबा! किसी ने धर्म नहीं बदला है।
प्रयास - तो फिर हैप्पीजी को सिंह से वेलंटाइन क्यों बना दिया? किसी के लिए ऐसी बात करना अच्छी बात नहीं है।
प्रगति - हे.. हे! पापा! यू आर वेरी स्वीट.. मम्मी सही में आपने हैप्पी अंकल को बदनाम कर दिया, अभी तक तो मुन्नी ही बदनाम थी।
प्रयास - ये मुन्नी कौन है, और बदनाम क्यों हुई?
प्रगति - बस, हो गई... पापा अब मैं काम पर जा रही हूं..
प्रयास - विनती ! बच्ची कॉलेज पढऩे जाती है या काम करने? हर समय यही कहती है कि काम करने जा रही हूं तो पढऩे कब जाती है?
विनती - शाम को आएगी तब पूछ लेना, अभी 1200 रुपए दो।
प्रयास - हां पूछूंगा, पर 1200 रुपए किस बात के?
विनती - बच्ची के लिए ड्रेस खरीदी थी, घर के खर्चे में से।
प्रयास - क्या? क्यों? नये साल पर तो ली थी!
विनती - उफ्फ! कितने सवाल करते हो? वो न्यू इयर की पार्टी के लिए ली थी और ये वेलंटाइन की पार्टी के लिए।
प्रयास - अरे हर महीने इतने महंगे-महंगे कपड़े खरीदे जाएंगे क्या?
विनती- हर महीने नहीं। वो दिसंबर था और ये फरवरी है।
प्रयास - हां, एक महीने ही तो हुआ है, दिसंबर वाला ही पहन लेती।
विनती - कोई बच्चा त्यौहार पर पुराने कपड़े नहीं पहनता है।
प्रयास - हम तो पहनते हैं, और आज कौन सा त्यौहार है?
विनती - कोई सा नहीं, 1200 रुपए के लिए मैं अपना दिमाग नहीं चटा सकती...
प्रयास - चटा लो, कम से कम महंगाई के बहाने ही सही, बात तो कर रहे हैं। वरना उठो, चाय ले लो, नहा लिए?, टिफिन ले लो, आराम से जाना। आ गए, पानी ले लो, खाना खा लो, कितना टीवी देखोगे, सो जाओ, सुबह ऑफिस जाना है। इन चंद लाइनों के अलावा तो हमारे जीवन में कोई बात ही नहीं रह गई है।
विनती - ओहो! अब जाओ ऑफिस मुझे काम है।
प्रयास - चलता हूं। और सुनो आज शाम को जल्दी आऊंगा। आते वक्त आधा किलो प्याज लाऊंगा। मिलकर प्याज पकौड़े बनाएंगे और खाएंगे।
विनती - इतना खर्च क्यों?
प्रयास - क्यों? आज हैप्पीजी का ही नही हमारा भी तो वेलंटाइन डे है।

Monday 31 January 2011

मैं क्यों हार मानूं

मैं क्यों हार मानूं।
मैं अभी हारा नहीं हूं।।
सूर्य में रोशनी है बाकी।
शरीर में रक्त बहाव है बाकी।।
मैं क्यों हार मानूं।
मैं अभी हारा नही हूं ।।
चंद्रमा में चमक है बाकी।
पैरों में चाल है बाकी।।
मैं क्यों हार मानूं ।
मैं अभी हारा नही हूं ।।
पृथ्वी में गति है बाकी।
मुझ में धैर्य है बाकी।।
मैं क्यों हार मानूं........