Thursday 26 March 2009

भ्रम टूट गया

ज मैं बहुत खुश हूं। आज मैं अपने स्कूल के दोस्त शिवानंद से मिलने जा रहा हूं। शिवानंद बचपन से ही कुछ अलग ही तरह का व्यक्ति था। सब लड़के अमिताभ और रेखा की बात करते लेकिन वह भारत की बात करता। सब कहते अमीर बनेंगे। विदेश में जाके बसेंगे। लेकिन शिवानंद कहता मैं भारतीय बनूंगा। सब लड़के कहते भारतीय कैसे बनेगा। उसका जवाब होता यह कहकर मैं अमीर नहीं बनूंगा। मैं हर भारतीय को समानता का अधिकार दिलाऊंगा। अमीरों को और गरीबों को एक ही थाली में खाना खिलाऊंगा। एक नया इतिहास रचुगा। शिवानंद कई बातें बिल्कुल अजीब ही करता था। जैसे स्कूल के हर चपरासी से गले मिलेगा। उनके साथ खाना खाएगा। जाने क्या क्या..।
इन सबका एक ही कारण है कि आज शिवानंद उत्तर भारत के एक छोटे से गांव सिलवासा का नेता बन चुका है। लेकिन पूरे भारत का मसीहा कहलाने लगा है। गरीबों को समानता व शोषण के खिलाफ कई आंदोलन किए हैं। इन्हीं कारणों से मैं भी शिवानंद से मिलता चाहता था। क्योंकि शिवानंद ने अपना सपना सच किया वो भी ईमानदारी से। उसे अपने इन महान कार्यों के लिए कई पुरस्कार मिले हैं।
एकदम से मेरे कमरे का दरवाजा किसी ने खटखटाया। मैंने खोला तो देखा शिवानंद सामने खड़ा था। मैंने पूछा कैसा है भाई? उसने कहा ठीक हूं। मैंने पूछा क्या हुआ, बड़े गुस्से में हो। कुछ नहीं ये भिखारी कहीं के न जीते हैं न जीने देते हैं। यहां पर जो शाही सवारी होती है। मैंने अचंभे से पूछा- यह कैसी सवारी होती है। शिवानंद बोला - तुझे तो मालूम है यहां पर सड़क नहीं है। इसलिए ये गरीब अपने कंधे पर बिठाकर एक जगह से दूसरी जगह पर ले जाते हैं। तो मैं भी पिछले गांव से शाही सवारी का लुत्फ लेता हुआ आ रहा था। यहां पर उतरा तो मैंने उस पर तरस खाकर दो रुपए दे दिए। कम्बख्त कहता है- साहब तीन रुपए दे दीजिए। मुझे गुस्सा आया। मैंने उतारी अपनी जूती और दे घसीटकर मारी। मैं नेता हूं। उनका मालिक हूं। लेकिन शिवानंद तू उसे एक रुपया दे सकता था। नहीं। इनको जितना दबाओगे, उतना राज करोगे। और मेरे आदमियों ने तो उसकी जबान ही काट दी होगी। जिससे आइंदा मांगने के काबिल ही न रहे। अगर इस गांव में विपक्ष का नेता नहीं होता तो मैं इन गरीब कीड़ों को मसल ही देता। शिवानंद यह तेरे विचार। तेरा आंदोलन। अरे वह सब तो लोकतंत्र के साथ एक मजाक है। विचार तो एक काल्पनिक चेहरा है, जिसे दिखाकर महान बना जाता है। और रही बात आंदोलनों की तो मैं कौन सा गांवों में होता है। सब टीवी की स्क्रीन पर लिखा और दिखाया जाता है।
मैं नेता नहीं हूं, राजनेता हूं। अगर मैं नेता बना रहता तो आज भी तुम सबकी नजरों में एक व्यंग्य का पात्र बना होता या किसी ट्रक के नीचे कुचल दिया गया होता। मेरे दोस्त गरीबी एक बीमारी है, जिसे हम जिंदा रखना चाहते हैं। जैसे शोषण होता रहे और शासन की डोर से लोकतंत्र की पतंग उड़ती रहे और मानवता कटती रहे। मेरे भाई 62 वर्ष बाद भी हमें अपने प्रजातंत्र को जिंदा रखने के लिए गुलामों की जरूरत है। जिससे हम आरक्षण की लक्ष्मण रेखा खींच सकें और आम आदमी का हरण कर सकें। उसकी इतनी क्रांतिकारी और ज्ञानवद्र्धक बातें सुनकर मेरा भ्रम टूट गया।

Sunday 15 March 2009

खर्चा

आज मेरी मां का इकलौता जेवर भी बिक गया। अब तो कुछ बेचने के लिए भी नहीं रहा। कैसे खर्चा कम करें, कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है। अब तो दो वक्त से एक वक्त ही खाना खाते हैं, फिर भी खर्चा कम नहीं हो रहा है। सब परेशान हैं, कैसे खर्चा कम करें। यह सवाल सबके मन में कई सवाल उत्पन्न कर रहा है। अगर मैं इतना परेशान हूं तो मेरे पापा मम्मी और यशोदा कितने परेशान होंगे। क्यों न मैं मर जाऊं। हां मैं मर जाऊंगा। थोड़ा खर्चा कम होगा। वैसे भी अब ये पेट कुछ ज्यादा खाना मांगने लगा है। मैं ही हर समय कोई न कोई चीज मांगता रहता हूं, मेरे ही कारम खर्चा बढ़ता है। मैं ही वास्तविक परिस्थिति को समझने में असफल हूं। इसलिए उचित यही है कि मैं सदा के लिए मृत्यु के साथ सो जाऊं। नहीं नहीं। मैं नहीं मर सकता। मैं मर गया तो सरे मेहमान घर आ जाएंगे। उनके खाने का खर्चा। सफेद चद्दर का खर्चा, अर्थी का खर्चा, पंडे और रूढिवादिता का खर्चा। नहीं और खर्चे बढ़ जाएंगे। नहीं इस समय मरना ठीक नहीं। मर गया तो घरवालों पर काफी खर्चा बढ़ जाएगा। नहीं मैं इतना स्वार्थी नहीं हो सकता। यह सोचते हुए मेरी आंख खुल गई। सामने देखा तो पापा आसमान में आस भरी निगाहों से देख रहे थे कि कब सितारे बदलेंगे और हमारी किस्मत बदलेगी। कब फिर से रोजगार मिलेगा। एकदम से टेबल गिरने की आवाज आई। पापा अंदर के कमरे में दौड़े । देखा तो यशोदा ने आत्महत्या कर ली। सब उसके पास आकर रोने लगे। रो मैं भी रहा था लेकिन मैं रो बहन के मरने पर रहा था या खर्चा बढ़ने पर। यह मुझे स्पष्ट नहीं हो रहा था। जो भी हो यशोदा ने अच्छा नहीं किया। पहले दो तीन बार सोच तो लिया होता। नहीं तो मुझसे ही सलाह ले ली होती कि मरने से खर्चे कम नहीं होते। बढ़ते ही हैं। और अचानक से मेरे सीने में दर्द उठा। और मैंने फिर से अपने परिवार का खर्चा दुगुना कर दिया। मौत भी परिवार का खर्चा कम न कर सकी।