आरसीबी निजी थी, लाशें सार्वजनिक हो गईं
4 जून 2025 — बेंगलुरु का चिन्नास्वामी स्टेडियम। एक दीवार के इस पार तालियों की गड़गड़ाहट थी, सेल्फ़ी की मुस्कानें थीं, और ट्रॉफी के इर्द-गिर्द उमड़ता हुआ एक आत्ममुग्ध जश्न। वहीं उसी दीवार के उस पार — हां, बिल्कुल उसी समय — रौंदे जा रहे थे लोग, चीखें गूंज रही थीं, जीवन दम तोड़ रहे थे। 11 भारतीय नागरिकों की मृत्यु हुई, 30 से अधिक घायल हुए। लेकिन जश्न नहीं रुका। ट्रॉफी फिर भी उठाई गई। सरकार फिर भी मुस्कुरा रही थी। और हम... हम जैसे शेष समाज, केवल देख रहे थे।
इस पर सबसे पहला प्रश्न यही उठता है — क्या यह कोई राष्ट्र की जीत थी? क्या यह कोई सैन्य विजय थी? नहीं। यह जीत थी एक निजी फ्रेंचाइज़ी की। एक प्राइवेट कंपनी की टीम की। जिसमें आधे खिलाड़ी विदेशी हैं, कप्तान मध्यप्रदेश का है, मुख्य चेहरा दिल्ली से है। और जिस राज्य की सरकार — कर्नाटक सरकार — इसे अपना "गर्व" घोषित कर रही थी, उस टीम में कर्नाटक का केवल एक प्रमुख खिलाड़ी था।
तो क्या केवल नाम “बेंगलुरु” होने से यह सरकार की उपलब्धि बन जाती है? क्या किसी निजी संस्था की व्यापारिक सफलता को प्रदेश की सांस्कृतिक विजय में परिवर्तित कर देना ही राजनीति की नई परिभाषा बन चुकी है?
माना कि यह राजनीतिक लाभ का अवसर था। स्वीकार है कि जनभावनाओं से जुड़कर लोकप्रियता पाना लोकतंत्र का एक हिस्सा होता है। किंतु जनभावनाओं को भुनाने की सीमा होती है। जब वह सीमा 11 लोगों की मृत देह को लांघ जाए, तब वह राजनीति नहीं, पाप बन जाती है।
जो फैंस उस दिन उमड़े थे, वे वोट बैंक नहीं थे। वे किसी की भीड़ नहीं, नागरिक थे — जिम्मेदारी से सुरक्षित किए जाने योग्य। लेकिन दुर्भाग्य यह कि प्रशासन भीड़ तो चाहता था, उसकी सुरक्षा नहीं। सरकार जश्न तो चाहती थी, संवेदना नहीं।
क्या एक सभ्य समाज में यह स्वीकार्य है कि हादसे के समय जश्न जारी रहे? क्या किसी भी प्रदेश की नैतिक चेतना इस हद तक सो चुकी है कि वह खून से सनी ट्रॉफी को भी "गौरव" बताने लगे?
यह कोई दुर्घटना नहीं थी, यह योजनागत उपेक्षा थी।
यह कोई चूक नहीं थी, यह प्रशासनिक दंभ था।
यह कोई विफलता नहीं थी, यह सत्ता की संवेदनहीन सफलता थी।
जब कोई सरकार किसी निजी टीम की जीत को “राजकीय विजय” की तरह प्रस्तुत करती है, तब वह जनता के विवेक का अपमान करती है। और जब उसी सरकार की विफलता से 11 लोगों की जान जाती है, और फिर भी जश्न नहीं रुकता — तब वह शासन नहीं, अपराध है।
आज हमें यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए — यह केवल भगदड़ नहीं थी, यह व्यवस्था की सार्वजनिक हत्या थी। और जब तक हम इस सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक अगली ट्रॉफी के नीचे फिर कोई शव मिलेगा, अगली जयकार के पीछे फिर कोई चीख दबेगी।
समाज के जाग्रत नागरिकों, अब मौन रहना अपराध है। प्रश्न उठाइए। व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कीजिए। क्योंकि किसी भी ट्रॉफी की कीमत इतनी नहीं हो सकती कि उसके नीचे 11 लोगों की लाशें छिप जाएं।
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