Tuesday, 3 June 2025

गजवा-ए-हिंद का अंतिम भाषण: दिल ने भी सुनने से इनकार कर दिया

 तो जनाब, "गजवा-ए-हिंद" की मशाल थामे फिर रहा एक और मौलाना इस दुनिया से कूच कर गया। बहावलपुर के जैश मुख्यालय से उठता धुआँ इस बार किसी बम के धमाके का नहीं, बल्कि गजवा के एक और ठेकेदार की रहस्यमयी मौत का सिग्नल दे रहा है। मौलाना अब्दुल अज़ीज़ इसर—नाम सुनते ही ऐसे लगता है जैसे कोई ग़ज़वा का ज़िक्र करने वाला सीरियल विलेन सामने आ खड़ा हुआ हो।


वैसे मरने की वजह बताई जा रही है—दिल का दौरा। लेकिन दिल तो उसका हिंदुस्तान का नाम सुनकर ही बौखला जाता था, फिर दौरा पड़ना कोई हैरानी की बात नहीं।

"गजवा" के जिहादी मार्केटिंग मैनेजर

मौलाना इसर जैश के उस मानसिक स्टार्टअप के ब्रांड एम्बेसडर थे, जो हर शुक्रवार को भारत को तोड़ने का पोस्टर रिलीज करता था, और हर सोमवार को भारत में "ज्वाला जलाने" की धमकी देता था। गजवा-ए-हिंद के इस स्वयंभू प्रचारक को लगता था कि वह इतिहास के किसी अनदेखे स्क्रिप्ट में कैरेक्टर प्ले कर रहा है, और भारत जैसे लोकतंत्र को किसी टीवी सीरियल की तरह ऑफ एयर कर देगा।

लेकिन हकीकत ये है कि जिस दिन भारत ने "ऑपरेशन सिंदूर" किया, उसी दिन इस फिल्म की स्क्रिप्ट जला दी गई। इसर तब से बस ट्रेलर ही दिखाते फिर रहा था—कभी वीडियो, कभी धमकी, कभी भाषण।

"मरकज़" से निकली अर्थी, पर विचारधारा अब भी बीमार

बताइए, जैश-ए-मोहम्मद के मुख्यालय 'मरकज़' से उसका अंतिम संस्कार किया गया। बड़ा रुतबा था। अब आतंकियों की भी VIP श्रेणी होती है—'A-लिस्ट' जिहादी। काश, उतनी ही मेहनत इसर ने दिल की बीमारी के इलाज में लगाई होती, जितनी उसने भारत विरोधी भाषणों में लगाई।

गजवा-ए-हिंद का जो ख्वाब उसे हर रात चैन से सोने नहीं देता था, उसी का बुखार अब पाकिस्तान की हुकूमत को भी सता रहा है। भारत विरोध का ये पुराना स्क्रिप्ट अब इतना घिस चुका है कि न तो नई नस्लों को बहका पा रहा है, न पुरानों का इलाज कर पा रहा है।

सवाल वही पुराना: ये मौत है या ‘साफ़-सफ़ाई’?

आख़िर ये मौत थी या कोई “रणनीतिक सफ़ाई”? अब पाकिस्तान की किसी एजेंसी ने कुछ नहीं कहा, कोई मेडिकल रिपोर्ट नहीं, कोई CCTV फुटेज नहीं, बस Telegram पर एक पोस्ट और हो गया फैसला—“दिल का दौरा पड़ा।”

वैसे भी, पाकिस्तान में दिल का दौरा और अंतरात्मा की आवाज़, दोनों तभी आती हैं जब कोई फाइल बंद करनी हो।

गजवा का अंतिम अध्याय?

इस पूरे किस्से में सबसे दिलचस्प बात यह है कि "गजवा-ए-हिंद" के नाम पर जितने ठेकेदार उठे, सबका अंत या तो रहस्यमयी रहा, या हास्यास्पद। कभी ड्रोन से, कभी ऑपरेशन से, और कभी ‘प्राकृतिक मौत’ से।

भारत को तोड़ने के सपने देखने वालों की अब एक सूची बननी चाहिए—जिसमें मौत की वजह के कॉलम के आगे लिखा हो: “Overdose of delusion.”

निष्कर्ष: बहावलपुर से बकवास की विदाई

तो चलिए, एक और गजवा सपने देखने वाला चला गया, अपनी ही नफरत में घुलकर। सवाल यह नहीं है कि अब्दुल इसर मरा कैसे। सवाल यह है कि इस जहरीली सोच को पालने-पोसने वाली व्यवस्था कब मरेगी?

"गजवा-ए-हिंद" अब विचार नहीं, मज़ाक बन चुका है। और जब किसी विचारधारा की अर्थी उठती है, तब मरकज़ से नहीं, अवाम की समझ से उठती है।

जय माँ भारती🙏🏽

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