Tuesday, 24 June 2025

श्रद्धा लहूलुहान है, और हम चुप हैं!

 क्या यही वह पावन भूमि है जहाँ संतों के चरणों में सम्राट नतमस्तक होते थे?

क्या यही वह संस्कृति है जिसने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उद्घोष किया था?
क्या यह वही सनातन धर्म है जो शबरी के झूठे बेरों में ईश्वर का स्वाद खोज लेता था?

इटावा के दादरपुर गाँव में जो हुआ, वह केवल दो कथावाचकों का अपमान नहीं था — यह धर्म की आत्मा पर प्रहार था।
यह प्रहार था उस मूल चिंतन पर जो कहता है कि ईश्वर सबका है, और ईश्वर की कथा पर सबका समान अधिकार है।

मुकुटमणि यादव और संत कुमार — दो कथावाचक, जिन्हें श्रीमद्भागवत कथा सुनाने के लिए आमंत्रित किया गया था।
दिन भक्ति का था, मंच भगवान का था, वातावरण श्रद्धा से भरा हुआ था — लेकिन फिर अचानक, जाति की तलवार लहराई गई।
जैसे ही कथावाचकों की जाति का 'ज्ञान' हुआ, वही श्रद्धालु भीड़ क्रोध में बदल गई। किसी ने चोटी काटी, किसी ने सिर मुंडवाया, किसी ने चेहरों पर मूत्र छिड़का और किसी ने जूते पर माथा रगड़वाया।

और यह सब उस आंगन में हुआ जहाँ ईश्वर का नाम लिया जा रहा था।

यह कैसा धर्म है जो पहले जाति पूछता है फिर कथा सुनता है?
यह कैसा समाज है जो श्रीराम का नाम लेकर भक्ति करता है, लेकिन शबरी की तरह भक्ति करने वालों से घृणा करता है?

जिस भगवान ने कभी किसी से जाति नहीं पूछी —
जिसने निषादराज को गले लगाया, शबरी के बेर खाए, सुदामा से मित्रता निभाई —
वही भगवान आज अपने ही नाम पर किए जा रहे जातिवादी उत्पात का मूक दर्शक बन चुके हैं।

और मैं यह कहने में कोई संकोच नहीं करता...
जो लोग मंदिरों को जातिवाद से गंदा कर रहे हैं, वे धर्म के नहीं, अधर्म के साधक हैं।

कुछ कहेंगे — कथावाचक ने जाति छिपाई थी। दो आधार कार्ड थे। नामों में अंतर था।
मान भी लें — तो क्या उसका उत्तर यह होगा कि आप उसे अपमान और हिंसा के नर्क में धकेल दें?
क्या कोई कथावाचक इसलिए अपवित्र हो गया क्योंकि वह ब्राह्मण नहीं था?

नहीं! यह 'झूठ' कारण नहीं था, यह केवल बहाना था। असली अपराध था 'भक्ति' का — वह भक्ति, जो जाति की जंजीरें तोड़ने का साहस करती है।

और वह समाज जो चुप है — वह भी कम दोषी नहीं।
जो मौन रहकर तमाशा देख रहा था, जो तालियाँ बजा रहा था,
वह भी धर्म का अपराधी है।

मैं पूछता हूँ—

  • क्या एक कथावाचक का सम्मान अब उसकी जाति तय करेगी?

  • क्या यही वह परंपरा है जहाँ "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" कहा गया था?

  • क्या यही वह समाज है जो कहता है — हर जीव में ब्रह्म का अंश है?

अगर हमने अब भी आँखें मूंदीं तो यह जाति की आग केवल एक गाँव को नहीं, पूरे समाज की बुनियाद को राख कर देगी।

आज धर्म संकट में है — और यह संकट बाहर से नहीं, भीतर से आया है।
मंदिरों के गर्भगृहों में, कथा के मंचों पर, भक्ति के बीच, जातिवाद का वायरस फैल चुका है।
और जब तक हम इसे जड़ से नहीं उखाड़ते, तब तक हम किसी भी ‘धर्मरक्षक’ कहलाने योग्य नहीं।

यह केवल मुकुटमणि या यादव समाज की लड़ाई नहीं है।

यह हिंदू समाज की आत्मा की लड़ाई है।
यह धर्म की मर्यादा, कथा की पवित्रता और ईश्वर के सम्मान की रक्षा की लड़ाई है।

तो पूछिए स्वयं से—

  • क्या हम ऐसी घटनाओं से धर्म परिवर्तन को बल नहीं दे रहे?

  • क्या हमारी संकीर्णता से कोई हमारी जड़ें नहीं छोड़ रहा?

  • क्या हम सच में इतने असहिष्णु हो चुके हैं कि अपनी ही जनसंख्या को ठुकरा रहे हैं?

हम खुद को घटा रहे हैं।
सोचिए — क्या हम एक भी जन को खोने का जोखिम उठा सकते हैं?

सोचिए। डरिए।
और ईश्वर का अपमान करना बंद कीजिए।

ईश्वर जात नहीं पूछते — वे केवल भक्ति देखते हैं।
और जब हम जाति के नाम पर भक्तों को अपमानित करते हैं,
तो हम ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध जा रहे होते हैं।

अब संकोच नहीं, प्रतिकार होगा।

अब निंदा नहीं, निर्णय होगा।
अब भी यदि हम नहीं जागे, तो भगवान भी हमें क्षमा नहीं करेंगे।

जात नहीं, धर्म की बात हो — यही हमारा संकल्प हो।
मूक नहीं, मुखर हो — यही हमारी आस्था की अग्निपरीक्षा है।

 

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