परंतु प्रश्न यह है — क्या न्याय का तराजू अब विचारधारा और धर्म देखकर झुकता है?
शर्मिष्ठा ने अपने कथनों पर क्षमा याचना की थी — वह भी बिना शर्त, बारंबार। उसने स्पष्ट किया था कि उसकी प्रतिक्रिया पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद से उपजे आक्रोश की परिणति थी, न कि किसी सम्पूर्ण धर्म के प्रति अपमान का प्रयास। फिर भी, पश्चिम बंगाल पुलिस 1500 किलोमीटर दूर गुड़गांव तक पहुंचकर एक अकेली बच्ची को गिरफ्तार कर लाती है, मानो कोई देशद्रोही गढ़ से पकड़ा गया हो।
क्या यह कार्यवाही कानून की रक्षा है या सत्ता का प्रदर्शन?
यही बंगाल पुलिस, जब उसके अपने राज्य में मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तर 24 परगना में दंगे होते हैं, तो वही पुलिस निष्क्रिय पाई जाती है। न्यायालयों द्वारा बार-बार फटकार खाई जाती है। लेकिन एक बच्ची — जो न नेता है, न प्रभावशाली — उसे पकड़ने के लिए सारी ताकत झोंक दी जाती है।
क्यों?
क्या इसलिए कि इस कार्रवाई से एक विशेष मत-समूह को आश्वस्त किया जा सके? क्या यह गिरफ्तारी राजनीतिक संदेश वाहक है? क्या यह संकेत है कि "हम तुम्हारे हैं सनम"?
क्या यह वही लोकतंत्र है, जहाँ 'सर तन से जुदा' की धमकी देने वालों पर कोई कार्यवाही नहीं होती, लेकिन एक क्षमा मांगने वाली बच्ची पर पाँच एफआईआर दर्ज की जाती हैं?
क्या धमकी देना अपराध नहीं है, जब तक पीड़िता साधारण हो, सामान्य हो, अकेली हो?
शर्मिष्ठा के विरुद्ध कार्यवाही एक गहन प्रश्न खड़ा करती है — क्या भारत में अब कानून भी बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के लिए अलग-अलग हो गया है?
क्या यह सत्य नहीं कि सत्ताधारी दलों के कुछ सांसदों ने भगवान शिव का उपहास किया? शिवलिंग के बारे में अशोभनीय टिप्पणी की? क्या उन पर कोई कार्यवाही हुई? नहीं।
क्या यह भी सत्य नहीं कि कई स्वघोषित प्रगतिशील पत्रकारों, कॉमेडियनों और बुद्धिजीवियों ने बारंबार हिंदू प्रतीकों का उपहास किया है — और फिर भी उन्हें कोई पुलिस बुलाने नहीं आई?
फिर इस बच्ची को ही क्यों?
क्योंकि वह अकेली है? असंगठित है? या फिर इसलिए क्योंकि वह हिंदू है?
यह कोई शर्मिष्ठा का समर्थन नहीं, यह प्रश्न है — क्या भारत के संविधान की आंखों पर अब विचारधारा की पट्टी बंध चुकी है?
भारत की आत्मा न्याय, समता और विवेक है। लेकिन जब अभिव्यक्ति की आज़ादी को राजनीतिक तुष्टिकरण की भेंट चढ़ा दिया जाता है, तब वह आज़ादी नहीं, एक व्यंग्य बन जाती है।
शर्मिष्ठा ने भूल की — स्वीकार किया। परंतु जिन लोगों ने उसे नग्न चित्रों में चित्रित किया, बलात्कार की धमकी दी, जला देने की बातें लिखीं — वे सब अब भी स्वतंत्र घूम रहे हैं। उनकी धमकियाँ न्याय के मापदंड से बाहर क्यों हैं?
यह मामला केवल एक बच्ची का नहीं है। यह प्रश्न है — क्या भारत का संविधान सभी नागरिकों के लिए समान है?
यह समाज के लिए एक सीख भी है और सत्ता के लिए एक चेतावनी भी।
आज शर्मिष्ठा की गिरफ्तारी हो रही है — कल यह चक्र किसी और की ओर घूम सकता है। यदि आज हम चुप रहे, तो कल हमारी भी अभिव्यक्ति शर्तों में बंधी होगी।
सत्य यही है कि भीड़ का उन्माद और सत्ता की सुविधा जब कानून का मार्गदर्शन करने लगें, तब लोकतंत्र का पतन तय है।
भारत एक सनातन राष्ट्र है — इसकी संस्कृति क्षमा, विवेक और संतुलन की रही है। हमें तय करना होगा कि हम उस संस्कृति के उत्तराधिकारी बने रहना चाहते हैं या राजनीतिक अवसरवाद के बंदी?
शर्मिष्ठा का प्रकरण भारत के हर सजग नागरिक के लिए एक प्रश्नपत्र है। उत्तर हमें देना है — ईमानदारी से, निष्पक्षता से, निर्भय होकर।
जय माँ भारती🙏🏽
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