Friday, 18 July 2025

चुप रहो, क्योंकि तुम्हारी बेटी नहीं थी!

 कभी 'धर्मस्थल' कहलाने वाला स्थान अब एक ऐसा शब्द बन गया है जो ज़ुबान पर आते ही मन घृणा, पीड़ा और आक्रोश से भर उठता है। कर्नाटक के इस गांव से जो रहस्य उघड़ा है, वह किसी एक मंदिर, एक संस्थान या किसी अपराधी की कहानी नहीं है — यह एक सभ्यता के भीतर सड़न का ऐलान है।


एक व्यक्ति—जो वर्षों तक मंदिर प्रशासन से जुड़ा सफाईकर्मी रहा—अब सामने आया है। उसने कहा है कि उसे बलात्कार के बाद मारी गई बच्चियों और महिलाओं के शव जलाने और दफनाने पर मजबूर किया गया।
ज़रा सोचिए… यह समाज कहाँ तक गिर चुका है कि कोई दशकों तक बेटियों की जली हुई देहों को दफनाता रहा, और पूरे समाज को भनक तक न लगी—or लगी भी हो, तो फर्क किसे पड़ा?

हाँ, यही है असली सवाल –
"किसे फर्क पड़ता है?"
इस 'Who cares' नामक सामाजिक महामारी ने हमारी आत्मा को भस्म कर दिया है।

उस व्यक्ति ने जो खुलासा किया है, वह सिर्फ अपराध नहीं, हमारी सामूहिक चुप्पी की कब्रगाह है।
उसने मानव अवशेषों की तस्वीरें दी हैं—उन हड्डियों की जो कभी किसी की बेटी थीं।
उन चूडियों की राख दी है, जिनमें कभी किसी कन्या का सपना चमकता था।
उस मिट्टी को खोदकर दिखाया है, जिसमें हमारा जमीर भी दफन है।

अब वह व्यक्ति भय में जी रहा है। क्यों?
क्योंकि सच बोलने वालों की जान इस देश में सबसे सस्ती है।
और झूठ बेचने वालों की कुर्सी सबसे महंगी।

सरकार अब तक चुप है।
मंदिर प्रशासन मौन है।
और समाज—वो तो इस ख़बर के अगले स्लाइड पर जा चुका है।
जैसे कुछ हुआ ही न हो।
जैसे बेटियों की चीखें किसी डील का हिस्सा थीं।

तो क्या हम स्वीकार कर लें कि अब इस देश में बलात्कार के बाद शव भी संस्थागत व्यवस्था में 'मैनेज' किए जाते हैं?
क्या अब ये स्वीकार करना बाकी रह गया है कि पवित्रता के नाम पर अपवित्रता का कारोबार चलाना भी धार्मिक सेवा में गिना जाने लगा है?

हमारा आक्रोश किसके लिए है?
क्या केवल तब जब पीड़िता हमारी जाति, हमारा वर्ग, हमारा चुनावी मुद्दा बनती है?
क्या बाकी बेटियाँ केवल आँकड़े हैं?

ये आग अगर तुम्हारे घर तक नहीं पहुँची, तो मत सोचो कि वो बुझ गई है।
ये वही आग है जो एक दिन हमारी आत्मा, हमारी सभ्यता और हमारी भाषा – सबकी चिता जलाएगी।

ध्यान रखना—इस बार राख सिर्फ एक लड़की की नहीं, हमारी पूरी नैतिकता की होगी।
अगर आज भी तुम चुप हो, तो फिर तुम सिर्फ दर्शक नहीं, सहभागी हो।

Thursday, 17 July 2025

संस्कृति बोलती रही, करुणा मौन थी

हमारे देश में 'संस्कृति' शब्द का ऐसा उपयोग हो रहा है जैसे यह कोई राजनीतिक नारा हो—जहाँ ज़रूरत पड़े, फेंक दो सामने।
मुद्दा चाहे मॉडर्न कपड़ों का हो, किसी मूर्ति की ऊँचाई का हो, या किसी लड़की की हँसी का — तुरन्त 'भारतीय संस्कृति' की लाठी उठ जाती है।
लेकिन जैसे ही कोई ज़िम्मेदारी का सवाल आता है — कोई मानवता, करुणा, सेवा, सहनशीलता या त्याग का प्रसंग — तो यही संस्कृति अचानक बहरापन ओढ़ लेती है।


आगरा की घटना ने यह सारा ढोंग उघाड़कर रख दिया।
ताजमहल घूमने आया एक परिवार अपने पैरालाइज्ड बुज़ुर्ग को कार में हाथ-पैर बांधकर बंद कर गया।
दम घुटने की हालत में वो बुज़ुर्ग पड़े रहे — न कोई पानी, न देखभाल — बस गाड़ी में बंद एक ‘प्राणी’ की तरह।
अगर कुछ गाइडों की सजगता न होती, तो शायद वह बुज़ुर्ग इस "संस्कृति-प्रेमी" परिवार के दर्शन काल में ही प्राण त्याग चुके होते।

और जवाब क्या मिला?
“वो पहले से पैरालाइज थे, इसलिए बांधकर छोड़ा।”

बस? इतना ही? यही है हमारी संस्कृति?
क्या अब ‘देखभाल’ का अर्थ केवल ‘बांध देना’ रह गया है?

हमारे ग्रंथों में कहा गया —
“श्रवण कुमार के कंधों पर संस्कार चलते थे।”
आज की पीढ़ी के पास SUV है, पर मनुष्यता नहीं।
ताजमहल में तस्वीरें ली जा रही थीं, और वहीं कार में एक जीवन सिसक रहा था।
किसी को अंतर नहीं पड़ा — क्योंकि हमने 'संस्कृति' को व्यवहार नहीं, सुरक्षा कवच बना लिया है — अपने पापों की ढाल।

सच यह है कि हम संस्कृति को जीते नहीं,
बस संस्कृति का शोर करते हैं।

हमारे पास सोशल मीडिया पर उपदेश हैं,
टेलीविज़न डिबेट में गला फाड़ने की ऊर्जा है,
लेकिन अपने ही परिवार के असहाय सदस्य को इंसान समझने की फुरसत नहीं।

गाइडों ने कार का लॉक तोड़ा, जान बचाई।
क्योंकि वे संस्कृति नहीं, ‘संवेदना’ जानते थे।

अब सवाल सीधा है —
यदि संस्कृति केवल कपड़ों, खानपान, मूर्तियों और नारों तक सीमित है,
तो वह सिर्फ़ ध्वनि है — न मूल्य है, न आत्मा।

हमें तय करना होगा —
हम 'संस्कृति' के नाम पर कब तक केवल ढोल पीटते रहेंगे?
कब वह दिन आएगा जब यह शब्द केवल शब्द न रहकर व्यवहार बन जाएगा?

जिस दिन हर बुज़ुर्ग को सम्मान, हर निर्बल को सहारा, और हर मनुष्य को मनुष्य समझा जाएगा —
तब हम कह सकेंगे — "हाँ, यही है हमारी संस्कृति।"
आज नहीं। बिल्कुल नहीं।

Wednesday, 16 July 2025

जला दो ये मौन — सौम्यश्री मर चुकी है!"

 "ये समाज क्या सचमुच मर चुका है? क्या हमारी आत्मा इतनी सस्ती हो चुकी है कि अब बेटियों की चीखें तब तक सुनाई नहीं देतीं जब तक वे राख बनकर हवाओं में घुल न जाएं?"

उड़ीसा के बालासोर जिले की 20 साल की बीएड छात्रा सौम्यश्री मिश्री ने आत्महत्या नहीं की — उसे इस सड़ चुके समाज, इस दुराचार से सने तंत्र, और संवेदनहीनता की कीचड़ में लथपथ व्यवस्था ने जला डाला।

उसका अपराध क्या था?


कि उसने अपनी इज्जत को 'नंबरों' और 'अटेंडेंस' के बदले सौंपने से मना कर दिया?
कि उसने 'ना' कहा?
या फिर कि उसने वह हिम्मत दिखाई जो इस मुल्क की लाखों लड़कियाँ डर से नहीं दिखा पातीं?

गुरु नहीं, नरपिशाच था समीर साहू

जिसे शिक्षक कहते हैं, वह 'एचओडी' समीर कुमार साहू, सौम्यश्री को महीनों से गलत नजरों से देख रहा था। उससे अनुचित मांगें कर रहा था। जब उसने विरोध किया, तो उसकी अटेंडेंस काटी गई, परीक्षा में फेल किया गया, मानसिक उत्पीड़न का इतना भयानक दौर चला कि सौम्यश्री टूटने लगी।

लेकिन वह झुकी नहीं। उसने लिखा, बोला, लड़ा — कॉलेज प्रिंसिपल दिलीप घोष को शिकायत दी, सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली, शासन-प्रशासन तक गुहार लगाई। लेकिन ये निकम्मा तंत्र तब तक नहीं हिला जब तक उसकी देह लपटों में बदल नहीं गई।

वो जलती रही और हम देखते रहे

12 जुलाई 2025 को सौम्यश्री ने प्रिंसिपल ऑफिस के सामने खुद पर पेट्रोल डालकर आग लगा ली।
95% जली।
एम्स भुवनेश्वर में वेंटिलेटर पर पड़ी रही।
14 जुलाई की रात 11:30 पर मौत हो गई।

लेकिन टीवी पर नहीं चला।
कोई कैमरा नहीं पहुंचा।
कोई राष्ट्रीय एंकर, जो दिन-रात एक्टिंग करने वालों के चोट पर 5 घंटे की बहस करता है — वो नहीं पहुंचा।

क्यों?

क्योंकि सौम्यश्री की चीखें 'टीआरपी' नहीं थीं।
उसकी राख में 'ब्रेकिंग न्यूज़' का मसाला नहीं था।
वो न्यूज़ बिकाऊ नहीं थी, बस जली हुई थी।

क्या बेटियाँ अब केवल तब सुनी जाएँगी जब वे जल मरें?

आज हर कॉलोनी, हर कॉलेज, हर दफ्तर में कोई न कोई सौम्यश्री अकेली लड़ रही है। उसके ऊपर कोई साहू बैठा है, कोई दिलीप घोष बैठा है, कोई 'प्रशासन' उसकी आवाज़ दबा रहा है। लेकिन जब वो खुद को आग लगा ले, तब हम अचानक ‘सदमे’ में आ जाते हैं।

सवाल यह है: सदमे में आप हैं या बेशर्मी में?

इस मुल्क में नारी के खिलाफ अपराध 'नया सामान्य' बन चुका है

कुछ दिनों पहले पुरुषों की आत्महत्या की खबरें आईं—अतुल, सुभाष, राजा रघुवंशी। उनपर बहस होनी चाहिए, लेकिन सोशल मीडिया ने उसे स्त्री विरोध के ट्रेंड में बदल दिया। जैसे सौम्यश्री जैसी लड़कियाँ अब ‘पुरानी बात’ हो गई हैं। जैसे महिलाओं के साथ बलात्कार, शोषण, हत्या अब किसी को झकझोरते ही नहीं।

क्या आँकड़े चाहिए?

एनसीआरबी कहता है: 2022 में 31,516 रेप केस। हर दिन 86। हर घंटे 3 से ज्यादा।
लेकिन हम इतने मूर्छित हो चुके हैं कि अब इन आँकड़ों पर आक्रोश नहीं आता।
क्योंकि जबतक चीखें ग्लैमर में लिपटी न हों, हम उन्हें सुनते नहीं।

माफ़ कीजिए—अब खामोशी अपराध है

सौम्यश्री अकेली लड़ी।
उसने बताया, सबूत दिए, सोशल मीडिया पर खुलेआम लिखा — “अगर न्याय नहीं मिला तो जान दे दूंगी।”
लेकिन किसी ने नहीं सुना।

अब जब वो नहीं है, हम शोक में पोस्ट डाल रहे हैं।

बिलकुल नहीं! अब समय शोक का नहीं, क्रांति का है।

अब बहुत हो चुका—या तो जागो, या फिर चुपचाप अगली चिता देखो

  • हर कॉलेज में महिलाओं के लिए कड़े, जवाबदेह शिकायत निवारण तंत्र हों।

  • हर शिकायत पर तुरंत कार्रवाई हो।

  • दोषी चाहे कोई भी हो — टीचर, प्रिंसिपल, अफ़सर — कानून की लाठी बिना रुके चले।

  • मीडिया को बिकाऊ खबरें नहीं, जलती बेटियों की चीखों को प्लेटफ़ॉर्म देना होगा।

और समाज?

तुम चुप मत रहो।
क्योंकि अगली बार सौम्यश्री की जगह तुम्हारी बेटी, तुम्हारी बहन, तुम्हारी छात्रा हो सकती है।

अंत नहीं—अभियान की शुरुआत है

अगर सौम्यश्री की मौत के बाद भी आप चुप हैं, तो यकीन मानिए — अब आप भी इस हत्यारे तंत्र का हिस्सा हैं।
बेटियाँ तब तक अकेली मरती रहेंगी जब तक हम collectively चीखना नहीं सीखेंगे।

अब सवाल ये नहीं कि सौम्यश्री क्यों मरी।

अब सवाल ये है—

क्या आप जिंदा हैं?

Tuesday, 24 June 2025

श्रद्धा लहूलुहान है, और हम चुप हैं!

 क्या यही वह पावन भूमि है जहाँ संतों के चरणों में सम्राट नतमस्तक होते थे?

क्या यही वह संस्कृति है जिसने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उद्घोष किया था?
क्या यह वही सनातन धर्म है जो शबरी के झूठे बेरों में ईश्वर का स्वाद खोज लेता था?

इटावा के दादरपुर गाँव में जो हुआ, वह केवल दो कथावाचकों का अपमान नहीं था — यह धर्म की आत्मा पर प्रहार था।
यह प्रहार था उस मूल चिंतन पर जो कहता है कि ईश्वर सबका है, और ईश्वर की कथा पर सबका समान अधिकार है।

मुकुटमणि यादव और संत कुमार — दो कथावाचक, जिन्हें श्रीमद्भागवत कथा सुनाने के लिए आमंत्रित किया गया था।
दिन भक्ति का था, मंच भगवान का था, वातावरण श्रद्धा से भरा हुआ था — लेकिन फिर अचानक, जाति की तलवार लहराई गई।
जैसे ही कथावाचकों की जाति का 'ज्ञान' हुआ, वही श्रद्धालु भीड़ क्रोध में बदल गई। किसी ने चोटी काटी, किसी ने सिर मुंडवाया, किसी ने चेहरों पर मूत्र छिड़का और किसी ने जूते पर माथा रगड़वाया।

और यह सब उस आंगन में हुआ जहाँ ईश्वर का नाम लिया जा रहा था।

यह कैसा धर्म है जो पहले जाति पूछता है फिर कथा सुनता है?
यह कैसा समाज है जो श्रीराम का नाम लेकर भक्ति करता है, लेकिन शबरी की तरह भक्ति करने वालों से घृणा करता है?

जिस भगवान ने कभी किसी से जाति नहीं पूछी —
जिसने निषादराज को गले लगाया, शबरी के बेर खाए, सुदामा से मित्रता निभाई —
वही भगवान आज अपने ही नाम पर किए जा रहे जातिवादी उत्पात का मूक दर्शक बन चुके हैं।

और मैं यह कहने में कोई संकोच नहीं करता...
जो लोग मंदिरों को जातिवाद से गंदा कर रहे हैं, वे धर्म के नहीं, अधर्म के साधक हैं।

कुछ कहेंगे — कथावाचक ने जाति छिपाई थी। दो आधार कार्ड थे। नामों में अंतर था।
मान भी लें — तो क्या उसका उत्तर यह होगा कि आप उसे अपमान और हिंसा के नर्क में धकेल दें?
क्या कोई कथावाचक इसलिए अपवित्र हो गया क्योंकि वह ब्राह्मण नहीं था?

नहीं! यह 'झूठ' कारण नहीं था, यह केवल बहाना था। असली अपराध था 'भक्ति' का — वह भक्ति, जो जाति की जंजीरें तोड़ने का साहस करती है।

और वह समाज जो चुप है — वह भी कम दोषी नहीं।
जो मौन रहकर तमाशा देख रहा था, जो तालियाँ बजा रहा था,
वह भी धर्म का अपराधी है।

मैं पूछता हूँ—

  • क्या एक कथावाचक का सम्मान अब उसकी जाति तय करेगी?

  • क्या यही वह परंपरा है जहाँ "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" कहा गया था?

  • क्या यही वह समाज है जो कहता है — हर जीव में ब्रह्म का अंश है?

अगर हमने अब भी आँखें मूंदीं तो यह जाति की आग केवल एक गाँव को नहीं, पूरे समाज की बुनियाद को राख कर देगी।

आज धर्म संकट में है — और यह संकट बाहर से नहीं, भीतर से आया है।
मंदिरों के गर्भगृहों में, कथा के मंचों पर, भक्ति के बीच, जातिवाद का वायरस फैल चुका है।
और जब तक हम इसे जड़ से नहीं उखाड़ते, तब तक हम किसी भी ‘धर्मरक्षक’ कहलाने योग्य नहीं।

यह केवल मुकुटमणि या यादव समाज की लड़ाई नहीं है।

यह हिंदू समाज की आत्मा की लड़ाई है।
यह धर्म की मर्यादा, कथा की पवित्रता और ईश्वर के सम्मान की रक्षा की लड़ाई है।

तो पूछिए स्वयं से—

  • क्या हम ऐसी घटनाओं से धर्म परिवर्तन को बल नहीं दे रहे?

  • क्या हमारी संकीर्णता से कोई हमारी जड़ें नहीं छोड़ रहा?

  • क्या हम सच में इतने असहिष्णु हो चुके हैं कि अपनी ही जनसंख्या को ठुकरा रहे हैं?

हम खुद को घटा रहे हैं।
सोचिए — क्या हम एक भी जन को खोने का जोखिम उठा सकते हैं?

सोचिए। डरिए।
और ईश्वर का अपमान करना बंद कीजिए।

ईश्वर जात नहीं पूछते — वे केवल भक्ति देखते हैं।
और जब हम जाति के नाम पर भक्तों को अपमानित करते हैं,
तो हम ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध जा रहे होते हैं।

अब संकोच नहीं, प्रतिकार होगा।

अब निंदा नहीं, निर्णय होगा।
अब भी यदि हम नहीं जागे, तो भगवान भी हमें क्षमा नहीं करेंगे।

जात नहीं, धर्म की बात हो — यही हमारा संकल्प हो।
मूक नहीं, मुखर हो — यही हमारी आस्था की अग्निपरीक्षा है।

 

Thursday, 12 June 2025

राख में दबे सपनों की चीख

 12 जून 2025 को अहमदाबाद का आसमान एक ऐसी त्रासदी का साक्षी बना, जिसने 145 करोड़ भारतीयों के दिलों को दहला दिया। एयर इंडिया की फ्लाइट AI-171, जो लंदन के लिए रवाना हुई थी, उड़ान भरने के केवल 59 सेकंड के भीतर आग का गोला बनकर धरती पर गिर पड़ी। इस भयावह हादसे में 242 में से 241 यात्रियों की जान चली गई। जो लोग चंद क्षण पहले अपने सपनों के साथ उड़ान भर रहे थे, वे पिघले हुए मलबे में तब्दील हो गए। केवल एक यात्री — रामविश्वास कुमार — इस मृत्यु के समंदर से किसी चमत्कार की तरह जीवित लौट पाए।

पर यह त्रासदी केवल एक विमान दुर्घटना नहीं थी। यह हमारे समय के उस गहरे डर की कहानी है जो अब हर उड़ान में हमारे साथ बैठेगा। हर बार जब कोई पायलट कहेगा — "We are ready for take-off" — तब हमारे दिलों में यह सवाल उठेगा कि क्या हम सही-सलामत लौटेंगे?

इस विमान में बैठे लोग कोई आकस्मिक यात्री नहीं थे। वे सपनों को आकार देने निकले थे। राजस्थान का जोशी परिवार — डॉक्टर प्रतीक, डॉक्टर कामिनी और उनके तीन मासूम बच्चे; नवविवाहिता खुशबू, जो शादी के तीन महीने बाद पहली बार अपने पति से मिलने लंदन जा रही थी; मणिपुर की 22 वर्षीय एयर होस्टेस नंगा थोई शर्मा, जिसने पिछले वर्ष ही अपने सपनों को पंख दिए थे; गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूणी और उनका परिवार — सभी की जीवनगाथाएं अधूरी रह गईं। हर तस्वीर अब एक जली हुई याद बनकर रह गई है।

यह हादसा केवल मौत की गिनती नहीं है। यह सवाल है — कि उड़ान भरते ही विमान कैसे गिर पड़ा? प्रारंभिक जांच में संकेत मिला है कि विमान ने रनवे की पूरी लंबाई का उपयोग नहीं किया, जिससे आवश्यक टेक-ऑफ स्पीड नहीं मिल पाई। दोनों इंजनों का अचानक बंद हो जाना, पायलट द्वारा इमरजेंसी सिग्नल भेजने के बावजूद प्रतिक्रिया न मिलना — ये सारे संकेत किसी गंभीर तकनीकी गड़बड़ी की ओर इशारा करते हैं।

बोइंग 787 ड्रीमलाइनर, जो विश्व में अपने सुरक्षित रिकॉर्ड के लिए प्रसिद्ध है, इस हादसे में धधकता हुआ गिरा। जांच एजेंसियों की निगाह अब ब्लैक बॉक्स पर टिकी है। परन्तु सबसे बड़ा सवाल वही रह जाता है — यदि तकनीकी त्रुटियां थीं तो उड़ान भरने की अनुमति कैसे दी गई? क्या निरीक्षण प्रक्रिया इतनी लचर थी?

टाटा समूह ने मृतकों के परिजनों को एक-एक करोड़ रुपये की सहायता देने की घोषणा की है। पर क्या धन उन परिवारों की पीड़ा का मूल्य चुका सकता है? क्या कोई भी मुआवजा उस मां का आँचल फिर से हरा कर सकता है जिसने अपनी गोद का चिराग खो दिया? क्या किसी मासूम बच्चे की मासूम हंसी लौटाई जा सकती है जिसने अपने पिता को हमेशा के लिए खो दिया?

यह हादसा केवल अहमदाबाद का नहीं है। यह हर उस भारतीय का है जो कभी भी, किसी भी एयरपोर्ट पर अपने परिजनों को अलविदा कहता है। हर बार जब कोई विद्यार्थी विदेश पढ़ने जाता है, कोई दुल्हन ससुराल के लिए रवाना होती है, कोई व्यवसायी नए सपनों की खोज में निकलता है — हर बार अब यह डर भी साथ रहेगा।

हमारे देश का विमानन इतिहास पहले भी हादसों से दागदार रहा है। 1996 में चरखी दादरी की टक्कर में 349 जिंदगियाँ खत्म हो गई थीं। वर्षों बीतने के बाद भी हम इन हादसों से सीख नहीं पा रहे हैं। हर हादसे के बाद वही शब्द — तकनीकी खराबी, मानवीय त्रुटि, सिस्टम फेल्योर, और कभी-कभी साजिश की अटकलें। परंतु मूल प्रश्न वही रहता है — यात्रियों की जान इतनी सस्ती क्यों है?

यह समय है कि भारत अपने विमानन तंत्र में व्यापक सुधार करे। रनवे, मेंटेनेंस, निरीक्षण, पायलट ट्रेनिंग, और एयर ट्रैफिक कंट्रोल — हर स्तर पर शून्य सहिष्णुता की नीति लागू करनी होगी। हमें केवल मुआवजा बांटने के लिए नहीं, बल्कि हादसों को रोकने के लिए तैयार रहना होगा।

क्योंकि हर हादसे के बाद हम बस यही सोचते रह जाते हैं — कि उस विमान में कोई अपना भी हो सकता था... या हम खुद हो सकते थे।

अब हमें इस डर के साथ जीना नहीं सीखना चाहिए, बल्कि ऐसे कदम उठाने चाहिए कि फिर कोई अहमदाबाद हादसा न दोहराया जाए।

नमन उन 241 दिवंगत आत्माओं को। प्रार्थना है कि फिर कभी किसी उड़ान में ऐसी विभीषिका न घटे, जिसमें समूचे राष्ट्र की आत्मा ही जल उठे।


The image was created by ChatGPT

अपवादों के सहारे सम्पूर्ण नारीत्व को अपराधी घोषित किया जा रहा है

 भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में विवाह मात्र दो व्यक्तियों का नहीं, अपितु दो वंशों, दो कुलों एवं दो परिवारों का पावन मिलन माना गया है। यह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, सात जन्मों तक चलने वाला अटूट बंधन है, जिसमें विश्वास, समर्पण और परस्पर श्रद्धा का अद्वितीय समावेश होता है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि कालान्तर में यह पवित्र संस्था अनेक विकृतियों एवं विडंबनाओं की शिकार होती जा रही है।


वर्तमान काल में आए दिन कुछ अत्यंत हृदय विदारक घटनाएँ समाज के सम्मुख आती हैं — कहीं पत्नी द्वारा पति की हत्या, कहीं उत्पीड़न से तंग आकर पति की आत्महत्या, कहीं वैवाहिक जीवन में अपमान, तो कहीं कानूनों के दुरुपयोग के प्रकरण। ये घटनाएँ समाज में क्षोभ, पीड़ा एवं आक्रोश का वातावरण निर्मित करती हैं। और तब कुछ स्वर यह कह उठते हैं —
"यही है स्त्रियों को अधिकार देने का परिणाम।"

परंतु क्या कुछ अपवादात्मक घटनाओं के आधार पर समस्त स्त्री समाज को कटघरे में खड़ा कर देना न्यायोचित है? क्या यह सनातन भारतीय संस्कृति के विनाश का पूर्व संकेत है?

सत्य यह है कि आज भी भारतवर्ष की असंख्य महिलाएँ घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना एवं मानसिक उत्पीड़न की अंतहीन पीड़ा सह रही हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े स्वयं इसका प्रमाण हैं —
वर्ष 2017 से 2022 के मध्य भारत में दहेज के कारण 35,493 नवविवाहिताओं की हत्या हुई।
केवल वर्ष 2020 में ही 'घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम, 2005' के अंतर्गत 496 प्रकरण पंजीकृत हुए।

यह तो वे मामले हैं जो न्यायालय की दहलीज तक पहुँचे।
वास्तविकता की गहराई इन आंकड़ों से कहीं अधिक भीषण और पीड़ादायक है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि इन आंकड़ों का एक प्रतिशत भी उन मामलों में परिवर्तित किया जाए, जहाँ महिलाओं ने पुरुषों के विरुद्ध उत्पीड़न किया हो, तो संभवतः वहां आंकड़ों की शून्यता ही दृष्टिगोचर होगी।

विवाह संस्था में व्याप्त दहेज प्रथा का दंश आज भी उतना ही जीवित है जितना कि पूर्वकाल में था। यह लेन-देन मात्र विवाह-मंडप तक सीमित नहीं रहता।
विवाह के उपरांत प्रत्येक पर्व, संस्कार, जन्मोत्सव एवं पर्वों पर कन्या पक्ष से उपहारों, धन, वस्त्र, आभूषण आदि की अनवरत माँग बनी रहती है।
और विडंबना यह कि इतना सब देने के उपरांत भी मायके पक्ष का हृदय भयाकुल रहता है —
कहीं ससुराल वाले अप्रसन्न न हो जाएँ।
कहीं बिटिया को अपमान, तिरस्कार, ताने या मारपीट न झेलनी पड़े।
कहीं वह घर उजड़ न जाए, कहीं उसकी देह ही न छिन जाए।

माता-पिता की प्रत्येक साँस इस भय के साथ चलती है।
उनकी प्रत्येक प्रार्थना में यही स्वर उठता है —
"हे ईश्वर! बस मेरी बेटी का घर बसाए रखना।"

किन्तु जब कभी कोई बहु साहस कर अन्याय के विरुद्ध स्वर उठाती है, तब वही समाज जो उसकी पीड़ा को वर्षों अनदेखा करता रहा, उसे ही कठघरे में खड़ा कर देता है।
और तब पुनः वही जड़ मानसिकता मुखर हो उठती है —
"यही है स्त्रियों को अधिकार देने का परिणाम।"

यह कथन उस मानसिकता का नग्न प्रतिबिंब है जो आज भी स्त्री को सम्मानपूर्वक स्वतंत्रता देने से कतराती है। समस्या स्त्री की स्वतंत्रता में नहीं है, समस्या है — उसे उसके अधिकारों के साथ जीने देने की मानसिकता में।

यह भी सत्य है कि कुछ अपवादस्वरूप महिलाएँ अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहीं हैं। झूठे आरोप, असत्य मुकदमे, प्रताड़ना के मिथ्या प्रकरणों ने कई निर्दोष पुरुषों को भी बर्बादी की कगार पर ला खड़ा किया है। किन्तु दुरुपयोग की संभावना मात्र से किसी भी कानून की आवश्यकता व उद्देश्य को नकार देना स्वयं अन्याय है।

जहाँ पुरुष पीड़ित हैं, उन्हें भी निष्पक्ष न्याय मिलना चाहिए।
उनकी भी व्यथा समाज को सुननी चाहिए।
किन्तु यह सत्य भी ध्यान रहे कि कुछ अपवादों के कारण सम्पूर्ण स्त्री समाज को अधिकार-विहीन कर देना किसी सभ्य राष्ट्र का लक्षण नहीं।

वास्तविक संकट पुरुष बनाम स्त्री के संघर्ष में नहीं है। संकट है — सामाजिक संतुलन के विघटन में।
जब तक हम यह स्वीकार नहीं करते कि स्त्री और पुरुष दोनों को समान सम्मान, समान संरक्षण और समान दायित्व मिलना चाहिए — तब तक हम न अपने समाज की रक्षा कर पाएँगे और न ही अपनी सांस्कृतिक धरोहर को अक्षुण्ण रख सकेंगे।

Monday, 9 June 2025

विवाह की वेदी या विश्वास की चिता?

 कभी बेटियों की विदाई पर मां-बाप की आंखें नम होती थीं। अब बेटों को विदा करते वक्त भी रूह कांपने लगी है। पहले सिर्फ बेटियाँ ससुराल जाती थीं, अब बेटों के साथ एक डर भी जाता है—कि क्या वो वापस लौटेगा? या फिर कंधों पर उसकी तस्वीर आएगी?

राजा रघुवंशी की शादी महज़ एक विवाह नहीं, हमारे समाज की आत्मा पर पड़ा वो तमाचा है जो आज भी गूंज रहा है। सात फेरे लिए थे उसने सोनम के साथ—लेकिन उसे क्या पता था कि यही फेरे उसके अंतिम संस्कार का क्रम बन जाएंगे। शादी के नौ दिन बाद राजा की लाश एक खाई में मिलती है। सिर पर धारदार हथियार के निशान थे, और पास ही पड़ी थी पत्नी सोनम की जैकेट।

शक हुआ, खोजबीन हुई, और फिर जो सामने आया—उसने भरोसे के ताबूत पर आख़िरी कील ठोक दी। राजा की पत्नी ने ही अपने प्रेमी और अन्य साथियों के साथ मिलकर उसकी हत्या कर दी। एक सुनियोजित षड्यंत्र, जिसे ‘हनीमून’ का नाम दिया गया था।

शादी, जिसे कभी दो आत्माओं का मिलन कहा जाता था, अब शक और खौफ़ का दूसरा नाम बनता जा रहा है। मुस्कान रस्तोगी द्वारा अपने पति साहिल की हत्या और अब सोनम द्वारा राजा की हत्या—क्या ये महज़ दो अपवाद हैं? या फिर समाज के भीतर पनप रही उस मानसिक बीमारी का लक्षण, जहां प्यार अब भावना नहीं, अपराध की भूमिका बन चुका है?

इस कहानी का सबसे भयानक पहलू यह है कि कातिल बाहर से नहीं आया। वो उसी घूंघट में छुपा था, जिसे हम आज भी श्रद्धा से पूजा करते हैं। जो रेशमी साड़ी किसी नवविवाहिता की पहचान होती थी, वही अब खून से रंगी हुई दिखने लगी है।

राजा जैसे लाखों युवा हैं जो प्यार, भरोसे और रिश्तों में विश्वास करते हैं। पढ़े-लिखे, समझदार, संस्कारी। लेकिन कई बार वे ऐसे छलावे का शिकार हो जाते हैं, जिसकी उन्हें भनक तक नहीं लगती। और सवाल यही है—क्या अब लड़कों को भी शादी से पहले "चरित्र प्रमाणपत्र" लेना होगा? क्या अब सिर्फ वर-कन्या की कुंडली नहीं, उनकी मानसिक स्थिरता और नैतिकता भी जांचनी होगी?

हमने आज़ादी की बात की —बेटियों को अपने फैसले लेने का अधिकार देने की। यह अधिकार बिल्कुल ज़रूरी है। लेकिन उस अधिकार की आड़ में अगर हत्या को भी 'मजबूरी' बताया जाए, तो समाज किस ओर जा रहा है?

जो लड़कियाँ अपने प्रेमी के लिए पति की हत्या कर रही हैं, उनसे भी सवाल है—क्या ये प्यार है? अगर हाँ, तो ये कैसा प्यार है जो अपनों का खून मांगता है?

यह कहानी केवल राजा की हत्या की नहीं है। यह उस विश्वास की हत्या है, जिसे हमने "शादी" कहा। यह उस माँ के सपनों की चिता है, जिसने सोचा था कि अब उसका बेटा घर बसा रहा है। यह उस भाई के विश्वास की राख है, जो भाभी को बहन मानने लगा था।

और यह सिर्फ राजा की कहानी नहीं। यह मुस्कान और साहिल की कहानी भी है। यह मेरठ के उस युवक की भी कहानी है जिसे ड्रम में भरकर ठिकाने लगा दिया गया। यह हम सबकी कहानी बनती जा रही है।

अब वक्त है कि हम सिर्फ बेटियों की सुरक्षा नहीं, बेटों की भी सुरक्षा की बात करें।

शादी अब सिर्फ एक सामाजिक रिवाज़ नहीं, एक संवेदनशील निर्णय है। एक ग़लत कदम एक ज़िंदगी ही नहीं, पूरा परिवार बर्बाद कर सकता है।

तो क्या अब हर ‘शुभ विवाह’ से पहले ये डर भी शामिल होगा कि कहीं ये विदाई आख़िरी तो नहीं?

सवाल वही है—और जवाब अब सिर्फ समाज को ही देना है।

जय माँ भारती🙏🏽

 

Friday, 6 June 2025

परमाणु हथियार और भूखे पेट का अंतर्द्वंद्व

 पाकिस्तान, जो अक्सर भारत को परमाणु हमले की धमकी देकर अपना ‘महाबली’ होने का भ्रम बुनता रहता है, असल में एक गहरे संकट में डूबा हुआ है — गरीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य के अभाव का। विश्व बैंक के ताजा आंकड़ों के अनुसार, इस मुल्क की आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है।


विश्व बैंक का 2018-19 का सर्वे साफ कहता है कि पाकिस्तान की लगभग 45 फीसदी आबादी महीने के तीन डॉलर की कमाई तक सीमित है। तीन डॉलर—इतनी छोटी रकम जिस पर बैठकर पाकिस्तान ‘परमाणु ताकत’ होने के नखरे करता है। जबकि उसका एक बड़ा तबका भूख से कराह रहा है, पोलियो जैसी बिमारी अब भी उसका साथी बनी हुई है।

इसी बीच, जब दुनिया पोलियो को भूतकाल की बीमारी मान चुकी है, पाकिस्तान में बीते डेढ़ सालों में 81 पोलियो के मामले सामने आए हैं। इसे समझने की कोशिश करें — विश्व की नजर में यह देश ‘खतरनाक’ हथियारों का धनी है, लेकिन पोलियो जैसे मूलभूत स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है।

गरीबी में अचानक हुई बढ़ोतरी भी कोई चमत्कार नहीं, बल्कि इंटरनेशनल पॉवर्टी लाइन के मानक में बदलाव का नतीजा है। 2.15 डॉलर से बढ़कर तीन डॉलर प्रति दिन की आय के आधार पर अब पाकिस्तान में अति निर्धनों की संख्या 4.9 फीसदी से बढ़कर 16.5 फीसदी हो गई है। यह आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं, बल्कि उस देश की विफलता का आईना है, जो अपनी अर्थव्यवस्था को स्थिर विकास नहीं दे पा रहा।

पाकिस्तान की सरकारें और सेना जहां बड़ी-बड़ी धमकियाँ देकर अपनी छवि चमकाने में लगी हैं, वहीं उनका बड़ा तबका गरीबी, बीमारी और अशिक्षा के गर्त में फंसा है। क्या यही ‘परमाणु ताकत’ की असली कीमत है? जब अमीरी और गरीबी के बीच की खाई दिन-ब-दिन गहरी होती जा रही हो, तब बड़े-बड़े युद्ध के नारे और धमकियाँ खोखली आवाज़ें साबित होती हैं।

तो अगली बार जब कोई पाकिस्तान की परमाणु धमकी सुने, तो समझिए कि उसके लिए सबसे बड़ा खतरा उसकी खुद की गरीबी और बुनियादी जरूरतों की कमी है — एक ऐसा ‘परमाणु विस्फोट’ जो उसके अस्तित्व को अंदर से खा रहा है, और जिसे कोई न रोक पा रहा है, न छिपा पा रहा है।

पाकिस्तान की यह त्रासदी नहीं, बल्कि उसकी सबसे बड़ी विडंबना है — जहाँ धमकियों के बीच एक भूखा आदमी अपने बच्चों के लिए खाना जुटाने में असफल रहता है।

Thursday, 5 June 2025

संवेदना का पतन और लाशों की निरर्थकता

 जय माँ भारती,

मैं यह पत्र उस पीड़ा से लिख रहा हूँ, जिसे अब मौन रखना स्वयं एक अपराध प्रतीत होने लगा है। मैं यह पत्र किसी क्रोधवश नहीं, बल्कि उस क्षुब्ध अन्तःकरण से लिख रहा हूँ, जो बारम्बार यह देख रहा है कि इस देश में एक सामान्य नागरिक का जीवन दिन-ब-दिन तुच्छ होता जा रहा है — इतना तुच्छ कि उसके मरने पर न शोक गहराता है, न व्यवस्था विचलित होती है।


बेंगलुरु की हालिया घटना कोई अकस्मात या प्राकृतिक विपदा नहीं थी। वह एक नृशंस, पूर्वानुमेय तथा स्पष्ट रूप से टाली जा सकने वाली प्रशासनिक लापरवाही थी। जब पुलिस विभाग स्वयं पूर्व में यह उद्घोष कर चुका था कि ऐसे विशाल जनसमूह के साथ विजय-जुलूस का आयोजन न किया जाए, तब भी यह आयोजन हुआ — और उसका परिणाम हुआ 11 जीवनों का अनाहूत अंत। इन मृतकों में कोई उच्चपदस्थ जन न था, न कोई प्रभावशाली नाम। वे सब हमारे जैसे — सामान्य जन थे। और संभवतः यही उनकी सबसे बड़ी कमी बन गई।

जिस राष्ट्र में मृत्यु केवल एक ट्वीट, कुछ इमोजी और औपचारिक शोक-संदेशों तक सीमित हो जाए — वहाँ यह पूछना अनिवार्य हो जाता है कि "क्या हमारा समाज अब मृत्यु की भी अभ्यस्त हो चुका है?"

यदि क्रिकेट का उत्सव एक जीवन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाए, यदि एक ट्रॉफी की प्रसन्नता मृत देहों पर भारी पड़ने लगे, तो यह मात्र एक सामाजिक संकट नहीं, अपितु नैतिक पतन की पराकाष्ठा है।

मेरा प्रश्न यह नहीं कि यह दुर्घटना कैसे हुई — मेरा प्रश्न है कि इसे रोका क्यों नहीं गया?

यदि पुलिस को पूर्व से इसकी संभावना ज्ञात थी, तो क्या प्रशासन अंध था? आयोजकों को यह विवेक क्यों नहीं हुआ कि तीन लाख जनों को एकत्रित करना, वह भी बिना समुचित सुरक्षा व अनुमति के, केवल अराजकता को आमंत्रण देना है?

और जब किसी ने इस पर प्रश्न उठाया, तो उसे उपहास और आक्रोश का पात्र बना दिया गया। जैसे प्रश्न पूछना इस राष्ट्र में अब असभ्यता का प्रतीक हो गया हो।

क्या यह सत्य नहीं है कि जब तक पीड़ित आपके स्वयं के परिवार का सदस्य न हो, तब तक उसकी पीड़ा केवल एक संख्या होती है?
क्या ₹1 लाख की क्षतिपूर्ति किसी 20 वर्षीय युवक के जीवन का मूल्य हो सकती है?

हम भूल जाते हैं कि जिनके लिए हम झण्डे लहराते हैं — नेता, अभिनेता, खिलाड़ी — उनके लिए हम केवल भीड़ हैं। हमारी मृत्यु उनके लिए समाचार है। हमारा अंत उनके लिए एक वक्तव्य है।

यह मौन अब और अधिक सह्य नहीं।

यह असहायता अब क्रोध नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व की मांग करती है।

मैं यह पत्र किसी विशेष दल, समूह या संस्था के विरोध में नहीं लिख रहा, वरन् उन सभी के प्रति असहमति प्रकट करता हूँ जिन्होंने जन-जीवन की क्षुद्रता को ‘प्रोटोकॉल’ और ‘नियमावली’ में समाहित कर दिया है।

यदि आज हम नहीं बोले, तो कल यह मृत्यु हमारे आँगन की होगी। तब क्या हम भी यही कहेंगे — "दुर्भाग्य"?

इसलिए मैं पूछता हूँ:

"क्या मेरे देश में मेरी जान से भी बड़ी कोई ट्रॉफी हो सकती है?"

आप सब से विनम्र निवेदन है — इस प्रश्न का उत्तर स्वयं को दीजिए।
यदि आत्मा में कंपन हो, तो जानिए — आप अब भी जीवित हैं।

सादर,
आदित्य तिक्कू।।

Wednesday, 4 June 2025

दीवार के उस पार मौत थी

आरसीबी निजी थी, लाशें सार्वजनिक हो गईं

 4 जून 2025 — बेंगलुरु का चिन्नास्वामी स्टेडियम। एक दीवार के इस पार तालियों की गड़गड़ाहट थी, सेल्फ़ी की मुस्कानें थीं, और ट्रॉफी के इर्द-गिर्द उमड़ता हुआ एक आत्ममुग्ध जश्न। वहीं उसी दीवार के उस पार — हां, बिल्कुल उसी समय — रौंदे जा रहे थे लोग, चीखें गूंज रही थीं, जीवन दम तोड़ रहे थे। 11 भारतीय नागरिकों की मृत्यु हुई, 30 से अधिक घायल हुए। लेकिन जश्न नहीं रुका। ट्रॉफी फिर भी उठाई गई। सरकार फिर भी मुस्कुरा रही थी। और हम... हम जैसे शेष समाज, केवल देख रहे थे।


इस पर सबसे पहला प्रश्न यही उठता है — क्या यह कोई राष्ट्र की जीत थी? क्या यह कोई सैन्य विजय थी? नहीं। यह जीत थी एक निजी फ्रेंचाइज़ी की। एक प्राइवेट कंपनी की टीम की। जिसमें आधे खिलाड़ी विदेशी हैं, कप्तान मध्यप्रदेश का है, मुख्य चेहरा दिल्ली से है। और जिस राज्य की सरकार — कर्नाटक सरकार — इसे अपना "गर्व" घोषित कर रही थी, उस टीम में कर्नाटक का केवल एक प्रमुख खिलाड़ी था।

तो क्या केवल नाम “बेंगलुरु” होने से यह सरकार की उपलब्धि बन जाती है? क्या किसी निजी संस्था की व्यापारिक सफलता को प्रदेश की सांस्कृतिक विजय में परिवर्तित कर देना ही राजनीति की नई परिभाषा बन चुकी है?

माना कि यह राजनीतिक लाभ का अवसर था। स्वीकार है कि जनभावनाओं से जुड़कर लोकप्रियता पाना लोकतंत्र का एक हिस्सा होता है। किंतु जनभावनाओं को भुनाने की सीमा होती है। जब वह सीमा 11 लोगों की मृत देह को लांघ जाए, तब वह राजनीति नहीं, पाप बन जाती है।

जो फैंस उस दिन उमड़े थे, वे वोट बैंक नहीं थे। वे किसी की भीड़ नहीं, नागरिक थे — जिम्मेदारी से सुरक्षित किए जाने योग्य। लेकिन दुर्भाग्य यह कि प्रशासन भीड़ तो चाहता था, उसकी सुरक्षा नहीं। सरकार जश्न तो चाहती थी, संवेदना नहीं।

क्या एक सभ्य समाज में यह स्वीकार्य है कि हादसे के समय जश्न जारी रहे? क्या किसी भी प्रदेश की नैतिक चेतना इस हद तक सो चुकी है कि वह खून से सनी ट्रॉफी को भी "गौरव" बताने लगे?

यह कोई दुर्घटना नहीं थी, यह योजनागत उपेक्षा थी।
यह कोई चूक नहीं थी, यह प्रशासनिक दंभ था।
यह कोई विफलता नहीं थी, यह सत्ता की संवेदनहीन सफलता थी।

जब कोई सरकार किसी निजी टीम की जीत को “राजकीय विजय” की तरह प्रस्तुत करती है, तब वह जनता के विवेक का अपमान करती है। और जब उसी सरकार की विफलता से 11 लोगों की जान जाती है, और फिर भी जश्न नहीं रुकता — तब वह शासन नहीं, अपराध है।

आज हमें यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए — यह केवल भगदड़ नहीं थी, यह व्यवस्था की सार्वजनिक हत्या थी। और जब तक हम इस सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक अगली ट्रॉफी के नीचे फिर कोई शव मिलेगा, अगली जयकार के पीछे फिर कोई चीख दबेगी।

समाज के जाग्रत नागरिकों, अब मौन रहना अपराध है। प्रश्न उठाइए। व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कीजिए। क्योंकि किसी भी ट्रॉफी की कीमत इतनी नहीं हो सकती कि उसके नीचे 11 लोगों की लाशें छिप जाएं।