Thursday, 12 June 2025

राख में दबे सपनों की चीख

 12 जून 2025 को अहमदाबाद का आसमान एक ऐसी त्रासदी का साक्षी बना, जिसने 145 करोड़ भारतीयों के दिलों को दहला दिया। एयर इंडिया की फ्लाइट AI-171, जो लंदन के लिए रवाना हुई थी, उड़ान भरने के केवल 59 सेकंड के भीतर आग का गोला बनकर धरती पर गिर पड़ी। इस भयावह हादसे में 242 में से 241 यात्रियों की जान चली गई। जो लोग चंद क्षण पहले अपने सपनों के साथ उड़ान भर रहे थे, वे पिघले हुए मलबे में तब्दील हो गए। केवल एक यात्री — रामविश्वास कुमार — इस मृत्यु के समंदर से किसी चमत्कार की तरह जीवित लौट पाए।

पर यह त्रासदी केवल एक विमान दुर्घटना नहीं थी। यह हमारे समय के उस गहरे डर की कहानी है जो अब हर उड़ान में हमारे साथ बैठेगा। हर बार जब कोई पायलट कहेगा — "We are ready for take-off" — तब हमारे दिलों में यह सवाल उठेगा कि क्या हम सही-सलामत लौटेंगे?

इस विमान में बैठे लोग कोई आकस्मिक यात्री नहीं थे। वे सपनों को आकार देने निकले थे। राजस्थान का जोशी परिवार — डॉक्टर प्रतीक, डॉक्टर कामिनी और उनके तीन मासूम बच्चे; नवविवाहिता खुशबू, जो शादी के तीन महीने बाद पहली बार अपने पति से मिलने लंदन जा रही थी; मणिपुर की 22 वर्षीय एयर होस्टेस नंगा थोई शर्मा, जिसने पिछले वर्ष ही अपने सपनों को पंख दिए थे; गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूणी और उनका परिवार — सभी की जीवनगाथाएं अधूरी रह गईं। हर तस्वीर अब एक जली हुई याद बनकर रह गई है।

यह हादसा केवल मौत की गिनती नहीं है। यह सवाल है — कि उड़ान भरते ही विमान कैसे गिर पड़ा? प्रारंभिक जांच में संकेत मिला है कि विमान ने रनवे की पूरी लंबाई का उपयोग नहीं किया, जिससे आवश्यक टेक-ऑफ स्पीड नहीं मिल पाई। दोनों इंजनों का अचानक बंद हो जाना, पायलट द्वारा इमरजेंसी सिग्नल भेजने के बावजूद प्रतिक्रिया न मिलना — ये सारे संकेत किसी गंभीर तकनीकी गड़बड़ी की ओर इशारा करते हैं।

बोइंग 787 ड्रीमलाइनर, जो विश्व में अपने सुरक्षित रिकॉर्ड के लिए प्रसिद्ध है, इस हादसे में धधकता हुआ गिरा। जांच एजेंसियों की निगाह अब ब्लैक बॉक्स पर टिकी है। परन्तु सबसे बड़ा सवाल वही रह जाता है — यदि तकनीकी त्रुटियां थीं तो उड़ान भरने की अनुमति कैसे दी गई? क्या निरीक्षण प्रक्रिया इतनी लचर थी?

टाटा समूह ने मृतकों के परिजनों को एक-एक करोड़ रुपये की सहायता देने की घोषणा की है। पर क्या धन उन परिवारों की पीड़ा का मूल्य चुका सकता है? क्या कोई भी मुआवजा उस मां का आँचल फिर से हरा कर सकता है जिसने अपनी गोद का चिराग खो दिया? क्या किसी मासूम बच्चे की मासूम हंसी लौटाई जा सकती है जिसने अपने पिता को हमेशा के लिए खो दिया?

यह हादसा केवल अहमदाबाद का नहीं है। यह हर उस भारतीय का है जो कभी भी, किसी भी एयरपोर्ट पर अपने परिजनों को अलविदा कहता है। हर बार जब कोई विद्यार्थी विदेश पढ़ने जाता है, कोई दुल्हन ससुराल के लिए रवाना होती है, कोई व्यवसायी नए सपनों की खोज में निकलता है — हर बार अब यह डर भी साथ रहेगा।

हमारे देश का विमानन इतिहास पहले भी हादसों से दागदार रहा है। 1996 में चरखी दादरी की टक्कर में 349 जिंदगियाँ खत्म हो गई थीं। वर्षों बीतने के बाद भी हम इन हादसों से सीख नहीं पा रहे हैं। हर हादसे के बाद वही शब्द — तकनीकी खराबी, मानवीय त्रुटि, सिस्टम फेल्योर, और कभी-कभी साजिश की अटकलें। परंतु मूल प्रश्न वही रहता है — यात्रियों की जान इतनी सस्ती क्यों है?

यह समय है कि भारत अपने विमानन तंत्र में व्यापक सुधार करे। रनवे, मेंटेनेंस, निरीक्षण, पायलट ट्रेनिंग, और एयर ट्रैफिक कंट्रोल — हर स्तर पर शून्य सहिष्णुता की नीति लागू करनी होगी। हमें केवल मुआवजा बांटने के लिए नहीं, बल्कि हादसों को रोकने के लिए तैयार रहना होगा।

क्योंकि हर हादसे के बाद हम बस यही सोचते रह जाते हैं — कि उस विमान में कोई अपना भी हो सकता था... या हम खुद हो सकते थे।

अब हमें इस डर के साथ जीना नहीं सीखना चाहिए, बल्कि ऐसे कदम उठाने चाहिए कि फिर कोई अहमदाबाद हादसा न दोहराया जाए।

नमन उन 241 दिवंगत आत्माओं को। प्रार्थना है कि फिर कभी किसी उड़ान में ऐसी विभीषिका न घटे, जिसमें समूचे राष्ट्र की आत्मा ही जल उठे।


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अपवादों के सहारे सम्पूर्ण नारीत्व को अपराधी घोषित किया जा रहा है

 भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में विवाह मात्र दो व्यक्तियों का नहीं, अपितु दो वंशों, दो कुलों एवं दो परिवारों का पावन मिलन माना गया है। यह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, सात जन्मों तक चलने वाला अटूट बंधन है, जिसमें विश्वास, समर्पण और परस्पर श्रद्धा का अद्वितीय समावेश होता है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि कालान्तर में यह पवित्र संस्था अनेक विकृतियों एवं विडंबनाओं की शिकार होती जा रही है।


वर्तमान काल में आए दिन कुछ अत्यंत हृदय विदारक घटनाएँ समाज के सम्मुख आती हैं — कहीं पत्नी द्वारा पति की हत्या, कहीं उत्पीड़न से तंग आकर पति की आत्महत्या, कहीं वैवाहिक जीवन में अपमान, तो कहीं कानूनों के दुरुपयोग के प्रकरण। ये घटनाएँ समाज में क्षोभ, पीड़ा एवं आक्रोश का वातावरण निर्मित करती हैं। और तब कुछ स्वर यह कह उठते हैं —
"यही है स्त्रियों को अधिकार देने का परिणाम।"

परंतु क्या कुछ अपवादात्मक घटनाओं के आधार पर समस्त स्त्री समाज को कटघरे में खड़ा कर देना न्यायोचित है? क्या यह सनातन भारतीय संस्कृति के विनाश का पूर्व संकेत है?

सत्य यह है कि आज भी भारतवर्ष की असंख्य महिलाएँ घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना एवं मानसिक उत्पीड़न की अंतहीन पीड़ा सह रही हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े स्वयं इसका प्रमाण हैं —
वर्ष 2017 से 2022 के मध्य भारत में दहेज के कारण 35,493 नवविवाहिताओं की हत्या हुई।
केवल वर्ष 2020 में ही 'घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम, 2005' के अंतर्गत 496 प्रकरण पंजीकृत हुए।

यह तो वे मामले हैं जो न्यायालय की दहलीज तक पहुँचे।
वास्तविकता की गहराई इन आंकड़ों से कहीं अधिक भीषण और पीड़ादायक है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि इन आंकड़ों का एक प्रतिशत भी उन मामलों में परिवर्तित किया जाए, जहाँ महिलाओं ने पुरुषों के विरुद्ध उत्पीड़न किया हो, तो संभवतः वहां आंकड़ों की शून्यता ही दृष्टिगोचर होगी।

विवाह संस्था में व्याप्त दहेज प्रथा का दंश आज भी उतना ही जीवित है जितना कि पूर्वकाल में था। यह लेन-देन मात्र विवाह-मंडप तक सीमित नहीं रहता।
विवाह के उपरांत प्रत्येक पर्व, संस्कार, जन्मोत्सव एवं पर्वों पर कन्या पक्ष से उपहारों, धन, वस्त्र, आभूषण आदि की अनवरत माँग बनी रहती है।
और विडंबना यह कि इतना सब देने के उपरांत भी मायके पक्ष का हृदय भयाकुल रहता है —
कहीं ससुराल वाले अप्रसन्न न हो जाएँ।
कहीं बिटिया को अपमान, तिरस्कार, ताने या मारपीट न झेलनी पड़े।
कहीं वह घर उजड़ न जाए, कहीं उसकी देह ही न छिन जाए।

माता-पिता की प्रत्येक साँस इस भय के साथ चलती है।
उनकी प्रत्येक प्रार्थना में यही स्वर उठता है —
"हे ईश्वर! बस मेरी बेटी का घर बसाए रखना।"

किन्तु जब कभी कोई बहु साहस कर अन्याय के विरुद्ध स्वर उठाती है, तब वही समाज जो उसकी पीड़ा को वर्षों अनदेखा करता रहा, उसे ही कठघरे में खड़ा कर देता है।
और तब पुनः वही जड़ मानसिकता मुखर हो उठती है —
"यही है स्त्रियों को अधिकार देने का परिणाम।"

यह कथन उस मानसिकता का नग्न प्रतिबिंब है जो आज भी स्त्री को सम्मानपूर्वक स्वतंत्रता देने से कतराती है। समस्या स्त्री की स्वतंत्रता में नहीं है, समस्या है — उसे उसके अधिकारों के साथ जीने देने की मानसिकता में।

यह भी सत्य है कि कुछ अपवादस्वरूप महिलाएँ अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहीं हैं। झूठे आरोप, असत्य मुकदमे, प्रताड़ना के मिथ्या प्रकरणों ने कई निर्दोष पुरुषों को भी बर्बादी की कगार पर ला खड़ा किया है। किन्तु दुरुपयोग की संभावना मात्र से किसी भी कानून की आवश्यकता व उद्देश्य को नकार देना स्वयं अन्याय है।

जहाँ पुरुष पीड़ित हैं, उन्हें भी निष्पक्ष न्याय मिलना चाहिए।
उनकी भी व्यथा समाज को सुननी चाहिए।
किन्तु यह सत्य भी ध्यान रहे कि कुछ अपवादों के कारण सम्पूर्ण स्त्री समाज को अधिकार-विहीन कर देना किसी सभ्य राष्ट्र का लक्षण नहीं।

वास्तविक संकट पुरुष बनाम स्त्री के संघर्ष में नहीं है। संकट है — सामाजिक संतुलन के विघटन में।
जब तक हम यह स्वीकार नहीं करते कि स्त्री और पुरुष दोनों को समान सम्मान, समान संरक्षण और समान दायित्व मिलना चाहिए — तब तक हम न अपने समाज की रक्षा कर पाएँगे और न ही अपनी सांस्कृतिक धरोहर को अक्षुण्ण रख सकेंगे।

Monday, 9 June 2025

विवाह की वेदी या विश्वास की चिता?

 कभी बेटियों की विदाई पर मां-बाप की आंखें नम होती थीं। अब बेटों को विदा करते वक्त भी रूह कांपने लगी है। पहले सिर्फ बेटियाँ ससुराल जाती थीं, अब बेटों के साथ एक डर भी जाता है—कि क्या वो वापस लौटेगा? या फिर कंधों पर उसकी तस्वीर आएगी?

राजा रघुवंशी की शादी महज़ एक विवाह नहीं, हमारे समाज की आत्मा पर पड़ा वो तमाचा है जो आज भी गूंज रहा है। सात फेरे लिए थे उसने सोनम के साथ—लेकिन उसे क्या पता था कि यही फेरे उसके अंतिम संस्कार का क्रम बन जाएंगे। शादी के नौ दिन बाद राजा की लाश एक खाई में मिलती है। सिर पर धारदार हथियार के निशान थे, और पास ही पड़ी थी पत्नी सोनम की जैकेट।

शक हुआ, खोजबीन हुई, और फिर जो सामने आया—उसने भरोसे के ताबूत पर आख़िरी कील ठोक दी। राजा की पत्नी ने ही अपने प्रेमी और अन्य साथियों के साथ मिलकर उसकी हत्या कर दी। एक सुनियोजित षड्यंत्र, जिसे ‘हनीमून’ का नाम दिया गया था।

शादी, जिसे कभी दो आत्माओं का मिलन कहा जाता था, अब शक और खौफ़ का दूसरा नाम बनता जा रहा है। मुस्कान रस्तोगी द्वारा अपने पति साहिल की हत्या और अब सोनम द्वारा राजा की हत्या—क्या ये महज़ दो अपवाद हैं? या फिर समाज के भीतर पनप रही उस मानसिक बीमारी का लक्षण, जहां प्यार अब भावना नहीं, अपराध की भूमिका बन चुका है?

इस कहानी का सबसे भयानक पहलू यह है कि कातिल बाहर से नहीं आया। वो उसी घूंघट में छुपा था, जिसे हम आज भी श्रद्धा से पूजा करते हैं। जो रेशमी साड़ी किसी नवविवाहिता की पहचान होती थी, वही अब खून से रंगी हुई दिखने लगी है।

राजा जैसे लाखों युवा हैं जो प्यार, भरोसे और रिश्तों में विश्वास करते हैं। पढ़े-लिखे, समझदार, संस्कारी। लेकिन कई बार वे ऐसे छलावे का शिकार हो जाते हैं, जिसकी उन्हें भनक तक नहीं लगती। और सवाल यही है—क्या अब लड़कों को भी शादी से पहले "चरित्र प्रमाणपत्र" लेना होगा? क्या अब सिर्फ वर-कन्या की कुंडली नहीं, उनकी मानसिक स्थिरता और नैतिकता भी जांचनी होगी?

हमने आज़ादी की बात की —बेटियों को अपने फैसले लेने का अधिकार देने की। यह अधिकार बिल्कुल ज़रूरी है। लेकिन उस अधिकार की आड़ में अगर हत्या को भी 'मजबूरी' बताया जाए, तो समाज किस ओर जा रहा है?

जो लड़कियाँ अपने प्रेमी के लिए पति की हत्या कर रही हैं, उनसे भी सवाल है—क्या ये प्यार है? अगर हाँ, तो ये कैसा प्यार है जो अपनों का खून मांगता है?

यह कहानी केवल राजा की हत्या की नहीं है। यह उस विश्वास की हत्या है, जिसे हमने "शादी" कहा। यह उस माँ के सपनों की चिता है, जिसने सोचा था कि अब उसका बेटा घर बसा रहा है। यह उस भाई के विश्वास की राख है, जो भाभी को बहन मानने लगा था।

और यह सिर्फ राजा की कहानी नहीं। यह मुस्कान और साहिल की कहानी भी है। यह मेरठ के उस युवक की भी कहानी है जिसे ड्रम में भरकर ठिकाने लगा दिया गया। यह हम सबकी कहानी बनती जा रही है।

अब वक्त है कि हम सिर्फ बेटियों की सुरक्षा नहीं, बेटों की भी सुरक्षा की बात करें।

शादी अब सिर्फ एक सामाजिक रिवाज़ नहीं, एक संवेदनशील निर्णय है। एक ग़लत कदम एक ज़िंदगी ही नहीं, पूरा परिवार बर्बाद कर सकता है।

तो क्या अब हर ‘शुभ विवाह’ से पहले ये डर भी शामिल होगा कि कहीं ये विदाई आख़िरी तो नहीं?

सवाल वही है—और जवाब अब सिर्फ समाज को ही देना है।

जय माँ भारती🙏🏽

 

Friday, 6 June 2025

परमाणु हथियार और भूखे पेट का अंतर्द्वंद्व

 पाकिस्तान, जो अक्सर भारत को परमाणु हमले की धमकी देकर अपना ‘महाबली’ होने का भ्रम बुनता रहता है, असल में एक गहरे संकट में डूबा हुआ है — गरीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य के अभाव का। विश्व बैंक के ताजा आंकड़ों के अनुसार, इस मुल्क की आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है।


विश्व बैंक का 2018-19 का सर्वे साफ कहता है कि पाकिस्तान की लगभग 45 फीसदी आबादी महीने के तीन डॉलर की कमाई तक सीमित है। तीन डॉलर—इतनी छोटी रकम जिस पर बैठकर पाकिस्तान ‘परमाणु ताकत’ होने के नखरे करता है। जबकि उसका एक बड़ा तबका भूख से कराह रहा है, पोलियो जैसी बिमारी अब भी उसका साथी बनी हुई है।

इसी बीच, जब दुनिया पोलियो को भूतकाल की बीमारी मान चुकी है, पाकिस्तान में बीते डेढ़ सालों में 81 पोलियो के मामले सामने आए हैं। इसे समझने की कोशिश करें — विश्व की नजर में यह देश ‘खतरनाक’ हथियारों का धनी है, लेकिन पोलियो जैसे मूलभूत स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है।

गरीबी में अचानक हुई बढ़ोतरी भी कोई चमत्कार नहीं, बल्कि इंटरनेशनल पॉवर्टी लाइन के मानक में बदलाव का नतीजा है। 2.15 डॉलर से बढ़कर तीन डॉलर प्रति दिन की आय के आधार पर अब पाकिस्तान में अति निर्धनों की संख्या 4.9 फीसदी से बढ़कर 16.5 फीसदी हो गई है। यह आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं, बल्कि उस देश की विफलता का आईना है, जो अपनी अर्थव्यवस्था को स्थिर विकास नहीं दे पा रहा।

पाकिस्तान की सरकारें और सेना जहां बड़ी-बड़ी धमकियाँ देकर अपनी छवि चमकाने में लगी हैं, वहीं उनका बड़ा तबका गरीबी, बीमारी और अशिक्षा के गर्त में फंसा है। क्या यही ‘परमाणु ताकत’ की असली कीमत है? जब अमीरी और गरीबी के बीच की खाई दिन-ब-दिन गहरी होती जा रही हो, तब बड़े-बड़े युद्ध के नारे और धमकियाँ खोखली आवाज़ें साबित होती हैं।

तो अगली बार जब कोई पाकिस्तान की परमाणु धमकी सुने, तो समझिए कि उसके लिए सबसे बड़ा खतरा उसकी खुद की गरीबी और बुनियादी जरूरतों की कमी है — एक ऐसा ‘परमाणु विस्फोट’ जो उसके अस्तित्व को अंदर से खा रहा है, और जिसे कोई न रोक पा रहा है, न छिपा पा रहा है।

पाकिस्तान की यह त्रासदी नहीं, बल्कि उसकी सबसे बड़ी विडंबना है — जहाँ धमकियों के बीच एक भूखा आदमी अपने बच्चों के लिए खाना जुटाने में असफल रहता है।

Thursday, 5 June 2025

संवेदना का पतन और लाशों की निरर्थकता

 जय माँ भारती,

मैं यह पत्र उस पीड़ा से लिख रहा हूँ, जिसे अब मौन रखना स्वयं एक अपराध प्रतीत होने लगा है। मैं यह पत्र किसी क्रोधवश नहीं, बल्कि उस क्षुब्ध अन्तःकरण से लिख रहा हूँ, जो बारम्बार यह देख रहा है कि इस देश में एक सामान्य नागरिक का जीवन दिन-ब-दिन तुच्छ होता जा रहा है — इतना तुच्छ कि उसके मरने पर न शोक गहराता है, न व्यवस्था विचलित होती है।


बेंगलुरु की हालिया घटना कोई अकस्मात या प्राकृतिक विपदा नहीं थी। वह एक नृशंस, पूर्वानुमेय तथा स्पष्ट रूप से टाली जा सकने वाली प्रशासनिक लापरवाही थी। जब पुलिस विभाग स्वयं पूर्व में यह उद्घोष कर चुका था कि ऐसे विशाल जनसमूह के साथ विजय-जुलूस का आयोजन न किया जाए, तब भी यह आयोजन हुआ — और उसका परिणाम हुआ 11 जीवनों का अनाहूत अंत। इन मृतकों में कोई उच्चपदस्थ जन न था, न कोई प्रभावशाली नाम। वे सब हमारे जैसे — सामान्य जन थे। और संभवतः यही उनकी सबसे बड़ी कमी बन गई।

जिस राष्ट्र में मृत्यु केवल एक ट्वीट, कुछ इमोजी और औपचारिक शोक-संदेशों तक सीमित हो जाए — वहाँ यह पूछना अनिवार्य हो जाता है कि "क्या हमारा समाज अब मृत्यु की भी अभ्यस्त हो चुका है?"

यदि क्रिकेट का उत्सव एक जीवन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाए, यदि एक ट्रॉफी की प्रसन्नता मृत देहों पर भारी पड़ने लगे, तो यह मात्र एक सामाजिक संकट नहीं, अपितु नैतिक पतन की पराकाष्ठा है।

मेरा प्रश्न यह नहीं कि यह दुर्घटना कैसे हुई — मेरा प्रश्न है कि इसे रोका क्यों नहीं गया?

यदि पुलिस को पूर्व से इसकी संभावना ज्ञात थी, तो क्या प्रशासन अंध था? आयोजकों को यह विवेक क्यों नहीं हुआ कि तीन लाख जनों को एकत्रित करना, वह भी बिना समुचित सुरक्षा व अनुमति के, केवल अराजकता को आमंत्रण देना है?

और जब किसी ने इस पर प्रश्न उठाया, तो उसे उपहास और आक्रोश का पात्र बना दिया गया। जैसे प्रश्न पूछना इस राष्ट्र में अब असभ्यता का प्रतीक हो गया हो।

क्या यह सत्य नहीं है कि जब तक पीड़ित आपके स्वयं के परिवार का सदस्य न हो, तब तक उसकी पीड़ा केवल एक संख्या होती है?
क्या ₹1 लाख की क्षतिपूर्ति किसी 20 वर्षीय युवक के जीवन का मूल्य हो सकती है?

हम भूल जाते हैं कि जिनके लिए हम झण्डे लहराते हैं — नेता, अभिनेता, खिलाड़ी — उनके लिए हम केवल भीड़ हैं। हमारी मृत्यु उनके लिए समाचार है। हमारा अंत उनके लिए एक वक्तव्य है।

यह मौन अब और अधिक सह्य नहीं।

यह असहायता अब क्रोध नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व की मांग करती है।

मैं यह पत्र किसी विशेष दल, समूह या संस्था के विरोध में नहीं लिख रहा, वरन् उन सभी के प्रति असहमति प्रकट करता हूँ जिन्होंने जन-जीवन की क्षुद्रता को ‘प्रोटोकॉल’ और ‘नियमावली’ में समाहित कर दिया है।

यदि आज हम नहीं बोले, तो कल यह मृत्यु हमारे आँगन की होगी। तब क्या हम भी यही कहेंगे — "दुर्भाग्य"?

इसलिए मैं पूछता हूँ:

"क्या मेरे देश में मेरी जान से भी बड़ी कोई ट्रॉफी हो सकती है?"

आप सब से विनम्र निवेदन है — इस प्रश्न का उत्तर स्वयं को दीजिए।
यदि आत्मा में कंपन हो, तो जानिए — आप अब भी जीवित हैं।

सादर,
आदित्य तिक्कू।।

Wednesday, 4 June 2025

दीवार के उस पार मौत थी

आरसीबी निजी थी, लाशें सार्वजनिक हो गईं

 4 जून 2025 — बेंगलुरु का चिन्नास्वामी स्टेडियम। एक दीवार के इस पार तालियों की गड़गड़ाहट थी, सेल्फ़ी की मुस्कानें थीं, और ट्रॉफी के इर्द-गिर्द उमड़ता हुआ एक आत्ममुग्ध जश्न। वहीं उसी दीवार के उस पार — हां, बिल्कुल उसी समय — रौंदे जा रहे थे लोग, चीखें गूंज रही थीं, जीवन दम तोड़ रहे थे। 11 भारतीय नागरिकों की मृत्यु हुई, 30 से अधिक घायल हुए। लेकिन जश्न नहीं रुका। ट्रॉफी फिर भी उठाई गई। सरकार फिर भी मुस्कुरा रही थी। और हम... हम जैसे शेष समाज, केवल देख रहे थे।


इस पर सबसे पहला प्रश्न यही उठता है — क्या यह कोई राष्ट्र की जीत थी? क्या यह कोई सैन्य विजय थी? नहीं। यह जीत थी एक निजी फ्रेंचाइज़ी की। एक प्राइवेट कंपनी की टीम की। जिसमें आधे खिलाड़ी विदेशी हैं, कप्तान मध्यप्रदेश का है, मुख्य चेहरा दिल्ली से है। और जिस राज्य की सरकार — कर्नाटक सरकार — इसे अपना "गर्व" घोषित कर रही थी, उस टीम में कर्नाटक का केवल एक प्रमुख खिलाड़ी था।

तो क्या केवल नाम “बेंगलुरु” होने से यह सरकार की उपलब्धि बन जाती है? क्या किसी निजी संस्था की व्यापारिक सफलता को प्रदेश की सांस्कृतिक विजय में परिवर्तित कर देना ही राजनीति की नई परिभाषा बन चुकी है?

माना कि यह राजनीतिक लाभ का अवसर था। स्वीकार है कि जनभावनाओं से जुड़कर लोकप्रियता पाना लोकतंत्र का एक हिस्सा होता है। किंतु जनभावनाओं को भुनाने की सीमा होती है। जब वह सीमा 11 लोगों की मृत देह को लांघ जाए, तब वह राजनीति नहीं, पाप बन जाती है।

जो फैंस उस दिन उमड़े थे, वे वोट बैंक नहीं थे। वे किसी की भीड़ नहीं, नागरिक थे — जिम्मेदारी से सुरक्षित किए जाने योग्य। लेकिन दुर्भाग्य यह कि प्रशासन भीड़ तो चाहता था, उसकी सुरक्षा नहीं। सरकार जश्न तो चाहती थी, संवेदना नहीं।

क्या एक सभ्य समाज में यह स्वीकार्य है कि हादसे के समय जश्न जारी रहे? क्या किसी भी प्रदेश की नैतिक चेतना इस हद तक सो चुकी है कि वह खून से सनी ट्रॉफी को भी "गौरव" बताने लगे?

यह कोई दुर्घटना नहीं थी, यह योजनागत उपेक्षा थी।
यह कोई चूक नहीं थी, यह प्रशासनिक दंभ था।
यह कोई विफलता नहीं थी, यह सत्ता की संवेदनहीन सफलता थी।

जब कोई सरकार किसी निजी टीम की जीत को “राजकीय विजय” की तरह प्रस्तुत करती है, तब वह जनता के विवेक का अपमान करती है। और जब उसी सरकार की विफलता से 11 लोगों की जान जाती है, और फिर भी जश्न नहीं रुकता — तब वह शासन नहीं, अपराध है।

आज हमें यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए — यह केवल भगदड़ नहीं थी, यह व्यवस्था की सार्वजनिक हत्या थी। और जब तक हम इस सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक अगली ट्रॉफी के नीचे फिर कोई शव मिलेगा, अगली जयकार के पीछे फिर कोई चीख दबेगी।

समाज के जाग्रत नागरिकों, अब मौन रहना अपराध है। प्रश्न उठाइए। व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कीजिए। क्योंकि किसी भी ट्रॉफी की कीमत इतनी नहीं हो सकती कि उसके नीचे 11 लोगों की लाशें छिप जाएं।

Tuesday, 3 June 2025

गजवा-ए-हिंद का अंतिम भाषण: दिल ने भी सुनने से इनकार कर दिया

 तो जनाब, "गजवा-ए-हिंद" की मशाल थामे फिर रहा एक और मौलाना इस दुनिया से कूच कर गया। बहावलपुर के जैश मुख्यालय से उठता धुआँ इस बार किसी बम के धमाके का नहीं, बल्कि गजवा के एक और ठेकेदार की रहस्यमयी मौत का सिग्नल दे रहा है। मौलाना अब्दुल अज़ीज़ इसर—नाम सुनते ही ऐसे लगता है जैसे कोई ग़ज़वा का ज़िक्र करने वाला सीरियल विलेन सामने आ खड़ा हुआ हो।


वैसे मरने की वजह बताई जा रही है—दिल का दौरा। लेकिन दिल तो उसका हिंदुस्तान का नाम सुनकर ही बौखला जाता था, फिर दौरा पड़ना कोई हैरानी की बात नहीं।

"गजवा" के जिहादी मार्केटिंग मैनेजर

मौलाना इसर जैश के उस मानसिक स्टार्टअप के ब्रांड एम्बेसडर थे, जो हर शुक्रवार को भारत को तोड़ने का पोस्टर रिलीज करता था, और हर सोमवार को भारत में "ज्वाला जलाने" की धमकी देता था। गजवा-ए-हिंद के इस स्वयंभू प्रचारक को लगता था कि वह इतिहास के किसी अनदेखे स्क्रिप्ट में कैरेक्टर प्ले कर रहा है, और भारत जैसे लोकतंत्र को किसी टीवी सीरियल की तरह ऑफ एयर कर देगा।

लेकिन हकीकत ये है कि जिस दिन भारत ने "ऑपरेशन सिंदूर" किया, उसी दिन इस फिल्म की स्क्रिप्ट जला दी गई। इसर तब से बस ट्रेलर ही दिखाते फिर रहा था—कभी वीडियो, कभी धमकी, कभी भाषण।

"मरकज़" से निकली अर्थी, पर विचारधारा अब भी बीमार

बताइए, जैश-ए-मोहम्मद के मुख्यालय 'मरकज़' से उसका अंतिम संस्कार किया गया। बड़ा रुतबा था। अब आतंकियों की भी VIP श्रेणी होती है—'A-लिस्ट' जिहादी। काश, उतनी ही मेहनत इसर ने दिल की बीमारी के इलाज में लगाई होती, जितनी उसने भारत विरोधी भाषणों में लगाई।

गजवा-ए-हिंद का जो ख्वाब उसे हर रात चैन से सोने नहीं देता था, उसी का बुखार अब पाकिस्तान की हुकूमत को भी सता रहा है। भारत विरोध का ये पुराना स्क्रिप्ट अब इतना घिस चुका है कि न तो नई नस्लों को बहका पा रहा है, न पुरानों का इलाज कर पा रहा है।

सवाल वही पुराना: ये मौत है या ‘साफ़-सफ़ाई’?

आख़िर ये मौत थी या कोई “रणनीतिक सफ़ाई”? अब पाकिस्तान की किसी एजेंसी ने कुछ नहीं कहा, कोई मेडिकल रिपोर्ट नहीं, कोई CCTV फुटेज नहीं, बस Telegram पर एक पोस्ट और हो गया फैसला—“दिल का दौरा पड़ा।”

वैसे भी, पाकिस्तान में दिल का दौरा और अंतरात्मा की आवाज़, दोनों तभी आती हैं जब कोई फाइल बंद करनी हो।

गजवा का अंतिम अध्याय?

इस पूरे किस्से में सबसे दिलचस्प बात यह है कि "गजवा-ए-हिंद" के नाम पर जितने ठेकेदार उठे, सबका अंत या तो रहस्यमयी रहा, या हास्यास्पद। कभी ड्रोन से, कभी ऑपरेशन से, और कभी ‘प्राकृतिक मौत’ से।

भारत को तोड़ने के सपने देखने वालों की अब एक सूची बननी चाहिए—जिसमें मौत की वजह के कॉलम के आगे लिखा हो: “Overdose of delusion.”

निष्कर्ष: बहावलपुर से बकवास की विदाई

तो चलिए, एक और गजवा सपने देखने वाला चला गया, अपनी ही नफरत में घुलकर। सवाल यह नहीं है कि अब्दुल इसर मरा कैसे। सवाल यह है कि इस जहरीली सोच को पालने-पोसने वाली व्यवस्था कब मरेगी?

"गजवा-ए-हिंद" अब विचार नहीं, मज़ाक बन चुका है। और जब किसी विचारधारा की अर्थी उठती है, तब मरकज़ से नहीं, अवाम की समझ से उठती है।

जय माँ भारती🙏🏽

Monday, 2 June 2025

शर्मिष्ठा पनोली और न्याय का आइना

एक राष्ट्रप्रेमी युवती — मात्र 22 वर्ष की आयु की शर्मिष्ठा पनोली — जिसने आतंकवाद के विरुद्ध अपनी वेदना व्यक्त की, बॉलीवुड की चुप्पी पर प्रश्न उठाए, और फिर अपने शब्दों के लिए सार्वजनिक क्षमा भी माँगी... उसे कोलकाता पुलिस ने 1500 किलोमीटर दूर से धर दबोचा। कारण? "धार्मिक भावना आहत" हुई थी।


परंतु प्रश्न यह है — किसकी भावना? और क्या केवल कुछ विशेष भावनाओं की ही अब न्याय व्यवस्था में गिनती है?

जिस व्यक्ति वजाहत खान ने उसके विरुद्ध शिकायत दर्ज कराई, अब वही व्यक्ति संदेह के घेरे में है। सात से अधिक शिकायतें, अनेक साक्ष्य, जिनमें हिंदू देवी-देवताओं, मंदिरों और परंपराओं के विरुद्ध अपमानजनक एवं उकसाऊ टिप्पणियाँ सम्मिलित हैं, उसके विरुद्ध प्रस्तुत हो चुकी हैं।

तो अब न्याय की तराजू किसके पक्ष में झुकी है?

अकेली छात्रा पर सत्ताशक्ति का प्रहार

शर्मिष्ठा कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं, कोई मंच संचालक नहीं, कोई प्रभावशाली तत्व नहीं। वह एक सामान्य भारतीय छात्रा है, जिसे पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद से क्षुब्ध होकर कुछ तीखे शब्द कह देना अपराध मान लिया गया। जबकि उसने स्वयं माफी माँग ली थी। उसने कहा — "मेरा उद्देश्य किसी धर्म का अपमान नहीं, केवल कायरता पर रोष था।"

पर यह स्वीकार्यता किसी को क्यों नहीं रुचाई?

क्यों? क्योंकि वह अकेली थी? संगठित नहीं थी? या इसलिए कि वह हिंदू थी?

जब हिंदू प्रतीक अपमानित हों — तब मौन क्यों?

आज जिन लोगों ने शर्मिष्ठा को बलात्कार की धमकी दी, नग्न चित्र बनाए, उन्हें सार्वजनिक मंचों पर अपमानित किया — वे सब अब भी स्वतंत्र घूम रहे हैं। उनके लिए कोई धारा 299 नहीं लगती, कोई गिरफ्तारी नहीं होती। वे "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के झंडाबरदार हैं।

और वहीं एक बच्ची... जिसकी माफी भी किसी को संतोष नहीं देती। क्या यह एकतरफा न्याय नहीं?

क्या यही इस लोकतंत्र की रीति बन गई है — कि बहुसंख्यक हिंदू की भावनाएं केवल उपेक्षा योग्य हैं?

क्या यह वही भारत है, जहाँ भगवान शिव पर कटाक्ष करने वाले संसद में बैठे हैं, और देवालयों का उपहास करने वाले बुद्धिजीवी पुरस्कार पाते हैं?

वजाहत खान — कौन है यह शिकायतकर्ता?

जिसने शर्मिष्ठा पर धार्मिक भावनाएं आहत करने का आरोप लगाया, उसी के सोशल मीडिया खाते से बार-बार हिंदू आस्थाओं को कलंकित करने वाली बातें सामने आई हैं। अब जब उसे घेरे में लिया गया है, वह अपना खाता लॉक कर चुका है, पोस्ट हटाए जा रहे हैं।

क्या यह सत्य नहीं कि यदि उसके स्थान पर कोई हिंदू युवक किसी अन्य धर्म पर ऐसा लिखता, तो वह अब तक कारावास में होता?

तो क्या अब इस देश की न्याय व्यवस्था का भी धर्म निर्धारण हो गया है?

अब निर्णय समाज को करना है

यह केवल शर्मिष्ठा का मामला नहीं, यह पूरे राष्ट्र का आइना है। यदि आज हम इस अन्याय पर मौन रहे, तो कल यह दमन और भी गहरा होगा।

हमें निर्णय करना होगा — क्या हम उस भारत के उत्तराधिकारी हैं, जिसकी आत्मा धर्म, न्याय और स्वाधीनता से पुष्ट थी? या हम एक ऐसा समाज बन चुके हैं, जहाँ तुष्टिकरण, डर, और राजनीतिक अवसरवाद ही नीति बन चुके हैं?

यदि कोई बालिका राष्ट्रविरोधी तत्वों पर आक्रोश प्रकट करे, तो वह बंदी है। और यदि कोई व्यक्ति हिंदू संस्कृति को कलंकित करे, तो वह "अभिव्यक्ति का अधिकार" भोगता है।

यह न्याय नहीं, यह भीषण अन्याय है। यह संविधान की आत्मा पर प्रहार है। यह माँ भारती के आँचल को अश्रुओं से भीगने को विवश करने वाला अपराध है।

जागो भारत!

यह समय है जागरण का, प्रतिकार का, और पुनः उस मर्यादा की स्थापना का जिसमें हर नागरिक को समान न्याय मिले।

अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब यह चक्र किसी और की ओर घूमेगा — और तब हम सब केवल तमाशबीन रह जाएँगे।

शर्मिष्ठा आज प्रतीक है — राष्ट्र की उस पीड़ा का, जिसे वर्षों से अनदेखा किया जा रहा है।
उसे मत देखो केवल एक लड़की के रूप में — उसे देखो भारत की बेटी के रूप में।

जो प्रतिकार कर रही थी — आतंकवाद का, कायरता का, और उस चुप्पी का जिसे "सहनशीलता" कहकर ढका गया है।

जय माँ भारती🙏🏽

Sunday, 1 June 2025

बच्ची की माफी, समाज की बेबसी, और सत्ता की साज़िश

 22 वर्षीया शर्मिष्ठा ने जो कुछ कहा, वह अनुचित था। शब्द चयन और अभिव्यक्ति की मर्यादा का पालन उसे करना चाहिए था। यह हम स्वीकार करते हैं, और यही इस युग की सीख भी होनी चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जब भी मर्यादा की रेखा लांघती है, तो वह संवाद नहीं, विघटन का कारण बनती है।

परंतु प्रश्न यह है — क्या न्याय का तराजू अब विचारधारा और धर्म देखकर झुकता है?

शर्मिष्ठा ने अपने कथनों पर क्षमा याचना की थी — वह भी बिना शर्त, बारंबार। उसने स्पष्ट किया था कि उसकी प्रतिक्रिया पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद से उपजे आक्रोश की परिणति थी, न कि किसी सम्पूर्ण धर्म के प्रति अपमान का प्रयास। फिर भी, पश्चिम बंगाल पुलिस 1500 किलोमीटर दूर गुड़गांव तक पहुंचकर एक अकेली बच्ची को गिरफ्तार कर लाती है, मानो कोई देशद्रोही गढ़ से पकड़ा गया हो।

क्या यह कार्यवाही कानून की रक्षा है या सत्ता का प्रदर्शन?

यही बंगाल पुलिस, जब उसके अपने राज्य में मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तर 24 परगना में दंगे होते हैं, तो वही पुलिस निष्क्रिय पाई जाती है। न्यायालयों द्वारा बार-बार फटकार खाई जाती है। लेकिन एक बच्ची — जो न नेता है, न प्रभावशाली — उसे पकड़ने के लिए सारी ताकत झोंक दी जाती है।

क्यों?

क्या इसलिए कि इस कार्रवाई से एक विशेष मत-समूह को आश्वस्त किया जा सके? क्या यह गिरफ्तारी राजनीतिक संदेश वाहक है? क्या यह संकेत है कि "हम तुम्हारे हैं सनम"?

क्या यह वही लोकतंत्र है, जहाँ 'सर तन से जुदा' की धमकी देने वालों पर कोई कार्यवाही नहीं होती, लेकिन एक क्षमा मांगने वाली बच्ची पर पाँच एफआईआर दर्ज की जाती हैं?

क्या धमकी देना अपराध नहीं है, जब तक पीड़िता साधारण हो, सामान्य हो, अकेली हो?

शर्मिष्ठा के विरुद्ध कार्यवाही एक गहन प्रश्न खड़ा करती है — क्या भारत में अब कानून भी बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के लिए अलग-अलग हो गया है?

क्या यह सत्य नहीं कि सत्ताधारी दलों के कुछ सांसदों ने भगवान शिव का उपहास किया? शिवलिंग के बारे में अशोभनीय टिप्पणी की? क्या उन पर कोई कार्यवाही हुई? नहीं।

क्या यह भी सत्य नहीं कि कई स्वघोषित प्रगतिशील पत्रकारों, कॉमेडियनों और बुद्धिजीवियों ने बारंबार हिंदू प्रतीकों का उपहास किया है — और फिर भी उन्हें कोई पुलिस बुलाने नहीं आई?

फिर इस बच्ची को ही क्यों?

क्योंकि वह अकेली है? असंगठित है? या फिर इसलिए क्योंकि वह हिंदू है?

यह कोई शर्मिष्ठा का समर्थन नहीं, यह प्रश्न है — क्या भारत के संविधान की आंखों पर अब विचारधारा की पट्टी बंध चुकी  है?

भारत की आत्मा न्याय, समता और विवेक है। लेकिन जब अभिव्यक्ति की आज़ादी को राजनीतिक तुष्टिकरण की भेंट चढ़ा दिया जाता है, तब वह आज़ादी नहीं, एक व्यंग्य बन जाती है।

शर्मिष्ठा ने भूल की — स्वीकार किया। परंतु जिन लोगों ने उसे नग्न चित्रों में चित्रित किया, बलात्कार की धमकी दी, जला देने की बातें लिखीं — वे सब अब भी स्वतंत्र घूम रहे हैं। उनकी धमकियाँ न्याय के मापदंड से बाहर क्यों हैं?

यह मामला केवल एक बच्ची का नहीं है। यह प्रश्न है — क्या भारत का संविधान सभी नागरिकों के लिए समान है?

यह समाज के लिए एक सीख भी है और सत्ता के लिए एक चेतावनी भी।

आज शर्मिष्ठा की गिरफ्तारी हो रही है — कल यह चक्र किसी और की ओर घूम सकता है। यदि आज हम चुप रहे, तो कल हमारी भी अभिव्यक्ति शर्तों में बंधी होगी।

सत्य यही है कि भीड़ का उन्माद और सत्ता की सुविधा जब कानून का मार्गदर्शन करने लगें, तब लोकतंत्र का पतन तय है।

भारत एक सनातन राष्ट्र है — इसकी संस्कृति क्षमा, विवेक और संतुलन की रही है। हमें तय करना होगा कि हम उस संस्कृति के उत्तराधिकारी बने रहना चाहते हैं या राजनीतिक अवसरवाद के बंदी?

शर्मिष्ठा का प्रकरण भारत के हर सजग नागरिक के लिए एक प्रश्नपत्र है। उत्तर हमें देना है — ईमानदारी से, निष्पक्षता से, निर्भय होकर।

जय माँ भारती🙏🏽