Friday, 6 June 2025

परमाणु हथियार और भूखे पेट का अंतर्द्वंद्व

 पाकिस्तान, जो अक्सर भारत को परमाणु हमले की धमकी देकर अपना ‘महाबली’ होने का भ्रम बुनता रहता है, असल में एक गहरे संकट में डूबा हुआ है — गरीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य के अभाव का। विश्व बैंक के ताजा आंकड़ों के अनुसार, इस मुल्क की आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है।


विश्व बैंक का 2018-19 का सर्वे साफ कहता है कि पाकिस्तान की लगभग 45 फीसदी आबादी महीने के तीन डॉलर की कमाई तक सीमित है। तीन डॉलर—इतनी छोटी रकम जिस पर बैठकर पाकिस्तान ‘परमाणु ताकत’ होने के नखरे करता है। जबकि उसका एक बड़ा तबका भूख से कराह रहा है, पोलियो जैसी बिमारी अब भी उसका साथी बनी हुई है।

इसी बीच, जब दुनिया पोलियो को भूतकाल की बीमारी मान चुकी है, पाकिस्तान में बीते डेढ़ सालों में 81 पोलियो के मामले सामने आए हैं। इसे समझने की कोशिश करें — विश्व की नजर में यह देश ‘खतरनाक’ हथियारों का धनी है, लेकिन पोलियो जैसे मूलभूत स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है।

गरीबी में अचानक हुई बढ़ोतरी भी कोई चमत्कार नहीं, बल्कि इंटरनेशनल पॉवर्टी लाइन के मानक में बदलाव का नतीजा है। 2.15 डॉलर से बढ़कर तीन डॉलर प्रति दिन की आय के आधार पर अब पाकिस्तान में अति निर्धनों की संख्या 4.9 फीसदी से बढ़कर 16.5 फीसदी हो गई है। यह आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं, बल्कि उस देश की विफलता का आईना है, जो अपनी अर्थव्यवस्था को स्थिर विकास नहीं दे पा रहा।

पाकिस्तान की सरकारें और सेना जहां बड़ी-बड़ी धमकियाँ देकर अपनी छवि चमकाने में लगी हैं, वहीं उनका बड़ा तबका गरीबी, बीमारी और अशिक्षा के गर्त में फंसा है। क्या यही ‘परमाणु ताकत’ की असली कीमत है? जब अमीरी और गरीबी के बीच की खाई दिन-ब-दिन गहरी होती जा रही हो, तब बड़े-बड़े युद्ध के नारे और धमकियाँ खोखली आवाज़ें साबित होती हैं।

तो अगली बार जब कोई पाकिस्तान की परमाणु धमकी सुने, तो समझिए कि उसके लिए सबसे बड़ा खतरा उसकी खुद की गरीबी और बुनियादी जरूरतों की कमी है — एक ऐसा ‘परमाणु विस्फोट’ जो उसके अस्तित्व को अंदर से खा रहा है, और जिसे कोई न रोक पा रहा है, न छिपा पा रहा है।

पाकिस्तान की यह त्रासदी नहीं, बल्कि उसकी सबसे बड़ी विडंबना है — जहाँ धमकियों के बीच एक भूखा आदमी अपने बच्चों के लिए खाना जुटाने में असफल रहता है।

Thursday, 5 June 2025

संवेदना का पतन और लाशों की निरर्थकता

 जय माँ भारती,

मैं यह पत्र उस पीड़ा से लिख रहा हूँ, जिसे अब मौन रखना स्वयं एक अपराध प्रतीत होने लगा है। मैं यह पत्र किसी क्रोधवश नहीं, बल्कि उस क्षुब्ध अन्तःकरण से लिख रहा हूँ, जो बारम्बार यह देख रहा है कि इस देश में एक सामान्य नागरिक का जीवन दिन-ब-दिन तुच्छ होता जा रहा है — इतना तुच्छ कि उसके मरने पर न शोक गहराता है, न व्यवस्था विचलित होती है।


बेंगलुरु की हालिया घटना कोई अकस्मात या प्राकृतिक विपदा नहीं थी। वह एक नृशंस, पूर्वानुमेय तथा स्पष्ट रूप से टाली जा सकने वाली प्रशासनिक लापरवाही थी। जब पुलिस विभाग स्वयं पूर्व में यह उद्घोष कर चुका था कि ऐसे विशाल जनसमूह के साथ विजय-जुलूस का आयोजन न किया जाए, तब भी यह आयोजन हुआ — और उसका परिणाम हुआ 11 जीवनों का अनाहूत अंत। इन मृतकों में कोई उच्चपदस्थ जन न था, न कोई प्रभावशाली नाम। वे सब हमारे जैसे — सामान्य जन थे। और संभवतः यही उनकी सबसे बड़ी कमी बन गई।

जिस राष्ट्र में मृत्यु केवल एक ट्वीट, कुछ इमोजी और औपचारिक शोक-संदेशों तक सीमित हो जाए — वहाँ यह पूछना अनिवार्य हो जाता है कि "क्या हमारा समाज अब मृत्यु की भी अभ्यस्त हो चुका है?"

यदि क्रिकेट का उत्सव एक जीवन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाए, यदि एक ट्रॉफी की प्रसन्नता मृत देहों पर भारी पड़ने लगे, तो यह मात्र एक सामाजिक संकट नहीं, अपितु नैतिक पतन की पराकाष्ठा है।

मेरा प्रश्न यह नहीं कि यह दुर्घटना कैसे हुई — मेरा प्रश्न है कि इसे रोका क्यों नहीं गया?

यदि पुलिस को पूर्व से इसकी संभावना ज्ञात थी, तो क्या प्रशासन अंध था? आयोजकों को यह विवेक क्यों नहीं हुआ कि तीन लाख जनों को एकत्रित करना, वह भी बिना समुचित सुरक्षा व अनुमति के, केवल अराजकता को आमंत्रण देना है?

और जब किसी ने इस पर प्रश्न उठाया, तो उसे उपहास और आक्रोश का पात्र बना दिया गया। जैसे प्रश्न पूछना इस राष्ट्र में अब असभ्यता का प्रतीक हो गया हो।

क्या यह सत्य नहीं है कि जब तक पीड़ित आपके स्वयं के परिवार का सदस्य न हो, तब तक उसकी पीड़ा केवल एक संख्या होती है?
क्या ₹1 लाख की क्षतिपूर्ति किसी 20 वर्षीय युवक के जीवन का मूल्य हो सकती है?

हम भूल जाते हैं कि जिनके लिए हम झण्डे लहराते हैं — नेता, अभिनेता, खिलाड़ी — उनके लिए हम केवल भीड़ हैं। हमारी मृत्यु उनके लिए समाचार है। हमारा अंत उनके लिए एक वक्तव्य है।

यह मौन अब और अधिक सह्य नहीं।

यह असहायता अब क्रोध नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व की मांग करती है।

मैं यह पत्र किसी विशेष दल, समूह या संस्था के विरोध में नहीं लिख रहा, वरन् उन सभी के प्रति असहमति प्रकट करता हूँ जिन्होंने जन-जीवन की क्षुद्रता को ‘प्रोटोकॉल’ और ‘नियमावली’ में समाहित कर दिया है।

यदि आज हम नहीं बोले, तो कल यह मृत्यु हमारे आँगन की होगी। तब क्या हम भी यही कहेंगे — "दुर्भाग्य"?

इसलिए मैं पूछता हूँ:

"क्या मेरे देश में मेरी जान से भी बड़ी कोई ट्रॉफी हो सकती है?"

आप सब से विनम्र निवेदन है — इस प्रश्न का उत्तर स्वयं को दीजिए।
यदि आत्मा में कंपन हो, तो जानिए — आप अब भी जीवित हैं।

सादर,
आदित्य तिक्कू।।

Wednesday, 4 June 2025

दीवार के उस पार मौत थी

आरसीबी निजी थी, लाशें सार्वजनिक हो गईं

 4 जून 2025 — बेंगलुरु का चिन्नास्वामी स्टेडियम। एक दीवार के इस पार तालियों की गड़गड़ाहट थी, सेल्फ़ी की मुस्कानें थीं, और ट्रॉफी के इर्द-गिर्द उमड़ता हुआ एक आत्ममुग्ध जश्न। वहीं उसी दीवार के उस पार — हां, बिल्कुल उसी समय — रौंदे जा रहे थे लोग, चीखें गूंज रही थीं, जीवन दम तोड़ रहे थे। 11 भारतीय नागरिकों की मृत्यु हुई, 30 से अधिक घायल हुए। लेकिन जश्न नहीं रुका। ट्रॉफी फिर भी उठाई गई। सरकार फिर भी मुस्कुरा रही थी। और हम... हम जैसे शेष समाज, केवल देख रहे थे।


इस पर सबसे पहला प्रश्न यही उठता है — क्या यह कोई राष्ट्र की जीत थी? क्या यह कोई सैन्य विजय थी? नहीं। यह जीत थी एक निजी फ्रेंचाइज़ी की। एक प्राइवेट कंपनी की टीम की। जिसमें आधे खिलाड़ी विदेशी हैं, कप्तान मध्यप्रदेश का है, मुख्य चेहरा दिल्ली से है। और जिस राज्य की सरकार — कर्नाटक सरकार — इसे अपना "गर्व" घोषित कर रही थी, उस टीम में कर्नाटक का केवल एक प्रमुख खिलाड़ी था।

तो क्या केवल नाम “बेंगलुरु” होने से यह सरकार की उपलब्धि बन जाती है? क्या किसी निजी संस्था की व्यापारिक सफलता को प्रदेश की सांस्कृतिक विजय में परिवर्तित कर देना ही राजनीति की नई परिभाषा बन चुकी है?

माना कि यह राजनीतिक लाभ का अवसर था। स्वीकार है कि जनभावनाओं से जुड़कर लोकप्रियता पाना लोकतंत्र का एक हिस्सा होता है। किंतु जनभावनाओं को भुनाने की सीमा होती है। जब वह सीमा 11 लोगों की मृत देह को लांघ जाए, तब वह राजनीति नहीं, पाप बन जाती है।

जो फैंस उस दिन उमड़े थे, वे वोट बैंक नहीं थे। वे किसी की भीड़ नहीं, नागरिक थे — जिम्मेदारी से सुरक्षित किए जाने योग्य। लेकिन दुर्भाग्य यह कि प्रशासन भीड़ तो चाहता था, उसकी सुरक्षा नहीं। सरकार जश्न तो चाहती थी, संवेदना नहीं।

क्या एक सभ्य समाज में यह स्वीकार्य है कि हादसे के समय जश्न जारी रहे? क्या किसी भी प्रदेश की नैतिक चेतना इस हद तक सो चुकी है कि वह खून से सनी ट्रॉफी को भी "गौरव" बताने लगे?

यह कोई दुर्घटना नहीं थी, यह योजनागत उपेक्षा थी।
यह कोई चूक नहीं थी, यह प्रशासनिक दंभ था।
यह कोई विफलता नहीं थी, यह सत्ता की संवेदनहीन सफलता थी।

जब कोई सरकार किसी निजी टीम की जीत को “राजकीय विजय” की तरह प्रस्तुत करती है, तब वह जनता के विवेक का अपमान करती है। और जब उसी सरकार की विफलता से 11 लोगों की जान जाती है, और फिर भी जश्न नहीं रुकता — तब वह शासन नहीं, अपराध है।

आज हमें यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए — यह केवल भगदड़ नहीं थी, यह व्यवस्था की सार्वजनिक हत्या थी। और जब तक हम इस सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक अगली ट्रॉफी के नीचे फिर कोई शव मिलेगा, अगली जयकार के पीछे फिर कोई चीख दबेगी।

समाज के जाग्रत नागरिकों, अब मौन रहना अपराध है। प्रश्न उठाइए। व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कीजिए। क्योंकि किसी भी ट्रॉफी की कीमत इतनी नहीं हो सकती कि उसके नीचे 11 लोगों की लाशें छिप जाएं।

Tuesday, 3 June 2025

गजवा-ए-हिंद का अंतिम भाषण: दिल ने भी सुनने से इनकार कर दिया

 तो जनाब, "गजवा-ए-हिंद" की मशाल थामे फिर रहा एक और मौलाना इस दुनिया से कूच कर गया। बहावलपुर के जैश मुख्यालय से उठता धुआँ इस बार किसी बम के धमाके का नहीं, बल्कि गजवा के एक और ठेकेदार की रहस्यमयी मौत का सिग्नल दे रहा है। मौलाना अब्दुल अज़ीज़ इसर—नाम सुनते ही ऐसे लगता है जैसे कोई ग़ज़वा का ज़िक्र करने वाला सीरियल विलेन सामने आ खड़ा हुआ हो।


वैसे मरने की वजह बताई जा रही है—दिल का दौरा। लेकिन दिल तो उसका हिंदुस्तान का नाम सुनकर ही बौखला जाता था, फिर दौरा पड़ना कोई हैरानी की बात नहीं।

"गजवा" के जिहादी मार्केटिंग मैनेजर

मौलाना इसर जैश के उस मानसिक स्टार्टअप के ब्रांड एम्बेसडर थे, जो हर शुक्रवार को भारत को तोड़ने का पोस्टर रिलीज करता था, और हर सोमवार को भारत में "ज्वाला जलाने" की धमकी देता था। गजवा-ए-हिंद के इस स्वयंभू प्रचारक को लगता था कि वह इतिहास के किसी अनदेखे स्क्रिप्ट में कैरेक्टर प्ले कर रहा है, और भारत जैसे लोकतंत्र को किसी टीवी सीरियल की तरह ऑफ एयर कर देगा।

लेकिन हकीकत ये है कि जिस दिन भारत ने "ऑपरेशन सिंदूर" किया, उसी दिन इस फिल्म की स्क्रिप्ट जला दी गई। इसर तब से बस ट्रेलर ही दिखाते फिर रहा था—कभी वीडियो, कभी धमकी, कभी भाषण।

"मरकज़" से निकली अर्थी, पर विचारधारा अब भी बीमार

बताइए, जैश-ए-मोहम्मद के मुख्यालय 'मरकज़' से उसका अंतिम संस्कार किया गया। बड़ा रुतबा था। अब आतंकियों की भी VIP श्रेणी होती है—'A-लिस्ट' जिहादी। काश, उतनी ही मेहनत इसर ने दिल की बीमारी के इलाज में लगाई होती, जितनी उसने भारत विरोधी भाषणों में लगाई।

गजवा-ए-हिंद का जो ख्वाब उसे हर रात चैन से सोने नहीं देता था, उसी का बुखार अब पाकिस्तान की हुकूमत को भी सता रहा है। भारत विरोध का ये पुराना स्क्रिप्ट अब इतना घिस चुका है कि न तो नई नस्लों को बहका पा रहा है, न पुरानों का इलाज कर पा रहा है।

सवाल वही पुराना: ये मौत है या ‘साफ़-सफ़ाई’?

आख़िर ये मौत थी या कोई “रणनीतिक सफ़ाई”? अब पाकिस्तान की किसी एजेंसी ने कुछ नहीं कहा, कोई मेडिकल रिपोर्ट नहीं, कोई CCTV फुटेज नहीं, बस Telegram पर एक पोस्ट और हो गया फैसला—“दिल का दौरा पड़ा।”

वैसे भी, पाकिस्तान में दिल का दौरा और अंतरात्मा की आवाज़, दोनों तभी आती हैं जब कोई फाइल बंद करनी हो।

गजवा का अंतिम अध्याय?

इस पूरे किस्से में सबसे दिलचस्प बात यह है कि "गजवा-ए-हिंद" के नाम पर जितने ठेकेदार उठे, सबका अंत या तो रहस्यमयी रहा, या हास्यास्पद। कभी ड्रोन से, कभी ऑपरेशन से, और कभी ‘प्राकृतिक मौत’ से।

भारत को तोड़ने के सपने देखने वालों की अब एक सूची बननी चाहिए—जिसमें मौत की वजह के कॉलम के आगे लिखा हो: “Overdose of delusion.”

निष्कर्ष: बहावलपुर से बकवास की विदाई

तो चलिए, एक और गजवा सपने देखने वाला चला गया, अपनी ही नफरत में घुलकर। सवाल यह नहीं है कि अब्दुल इसर मरा कैसे। सवाल यह है कि इस जहरीली सोच को पालने-पोसने वाली व्यवस्था कब मरेगी?

"गजवा-ए-हिंद" अब विचार नहीं, मज़ाक बन चुका है। और जब किसी विचारधारा की अर्थी उठती है, तब मरकज़ से नहीं, अवाम की समझ से उठती है।

जय माँ भारती🙏🏽

Monday, 2 June 2025

शर्मिष्ठा पनोली और न्याय का आइना

एक राष्ट्रप्रेमी युवती — मात्र 22 वर्ष की आयु की शर्मिष्ठा पनोली — जिसने आतंकवाद के विरुद्ध अपनी वेदना व्यक्त की, बॉलीवुड की चुप्पी पर प्रश्न उठाए, और फिर अपने शब्दों के लिए सार्वजनिक क्षमा भी माँगी... उसे कोलकाता पुलिस ने 1500 किलोमीटर दूर से धर दबोचा। कारण? "धार्मिक भावना आहत" हुई थी।


परंतु प्रश्न यह है — किसकी भावना? और क्या केवल कुछ विशेष भावनाओं की ही अब न्याय व्यवस्था में गिनती है?

जिस व्यक्ति वजाहत खान ने उसके विरुद्ध शिकायत दर्ज कराई, अब वही व्यक्ति संदेह के घेरे में है। सात से अधिक शिकायतें, अनेक साक्ष्य, जिनमें हिंदू देवी-देवताओं, मंदिरों और परंपराओं के विरुद्ध अपमानजनक एवं उकसाऊ टिप्पणियाँ सम्मिलित हैं, उसके विरुद्ध प्रस्तुत हो चुकी हैं।

तो अब न्याय की तराजू किसके पक्ष में झुकी है?

अकेली छात्रा पर सत्ताशक्ति का प्रहार

शर्मिष्ठा कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं, कोई मंच संचालक नहीं, कोई प्रभावशाली तत्व नहीं। वह एक सामान्य भारतीय छात्रा है, जिसे पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद से क्षुब्ध होकर कुछ तीखे शब्द कह देना अपराध मान लिया गया। जबकि उसने स्वयं माफी माँग ली थी। उसने कहा — "मेरा उद्देश्य किसी धर्म का अपमान नहीं, केवल कायरता पर रोष था।"

पर यह स्वीकार्यता किसी को क्यों नहीं रुचाई?

क्यों? क्योंकि वह अकेली थी? संगठित नहीं थी? या इसलिए कि वह हिंदू थी?

जब हिंदू प्रतीक अपमानित हों — तब मौन क्यों?

आज जिन लोगों ने शर्मिष्ठा को बलात्कार की धमकी दी, नग्न चित्र बनाए, उन्हें सार्वजनिक मंचों पर अपमानित किया — वे सब अब भी स्वतंत्र घूम रहे हैं। उनके लिए कोई धारा 299 नहीं लगती, कोई गिरफ्तारी नहीं होती। वे "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के झंडाबरदार हैं।

और वहीं एक बच्ची... जिसकी माफी भी किसी को संतोष नहीं देती। क्या यह एकतरफा न्याय नहीं?

क्या यही इस लोकतंत्र की रीति बन गई है — कि बहुसंख्यक हिंदू की भावनाएं केवल उपेक्षा योग्य हैं?

क्या यह वही भारत है, जहाँ भगवान शिव पर कटाक्ष करने वाले संसद में बैठे हैं, और देवालयों का उपहास करने वाले बुद्धिजीवी पुरस्कार पाते हैं?

वजाहत खान — कौन है यह शिकायतकर्ता?

जिसने शर्मिष्ठा पर धार्मिक भावनाएं आहत करने का आरोप लगाया, उसी के सोशल मीडिया खाते से बार-बार हिंदू आस्थाओं को कलंकित करने वाली बातें सामने आई हैं। अब जब उसे घेरे में लिया गया है, वह अपना खाता लॉक कर चुका है, पोस्ट हटाए जा रहे हैं।

क्या यह सत्य नहीं कि यदि उसके स्थान पर कोई हिंदू युवक किसी अन्य धर्म पर ऐसा लिखता, तो वह अब तक कारावास में होता?

तो क्या अब इस देश की न्याय व्यवस्था का भी धर्म निर्धारण हो गया है?

अब निर्णय समाज को करना है

यह केवल शर्मिष्ठा का मामला नहीं, यह पूरे राष्ट्र का आइना है। यदि आज हम इस अन्याय पर मौन रहे, तो कल यह दमन और भी गहरा होगा।

हमें निर्णय करना होगा — क्या हम उस भारत के उत्तराधिकारी हैं, जिसकी आत्मा धर्म, न्याय और स्वाधीनता से पुष्ट थी? या हम एक ऐसा समाज बन चुके हैं, जहाँ तुष्टिकरण, डर, और राजनीतिक अवसरवाद ही नीति बन चुके हैं?

यदि कोई बालिका राष्ट्रविरोधी तत्वों पर आक्रोश प्रकट करे, तो वह बंदी है। और यदि कोई व्यक्ति हिंदू संस्कृति को कलंकित करे, तो वह "अभिव्यक्ति का अधिकार" भोगता है।

यह न्याय नहीं, यह भीषण अन्याय है। यह संविधान की आत्मा पर प्रहार है। यह माँ भारती के आँचल को अश्रुओं से भीगने को विवश करने वाला अपराध है।

जागो भारत!

यह समय है जागरण का, प्रतिकार का, और पुनः उस मर्यादा की स्थापना का जिसमें हर नागरिक को समान न्याय मिले।

अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब यह चक्र किसी और की ओर घूमेगा — और तब हम सब केवल तमाशबीन रह जाएँगे।

शर्मिष्ठा आज प्रतीक है — राष्ट्र की उस पीड़ा का, जिसे वर्षों से अनदेखा किया जा रहा है।
उसे मत देखो केवल एक लड़की के रूप में — उसे देखो भारत की बेटी के रूप में।

जो प्रतिकार कर रही थी — आतंकवाद का, कायरता का, और उस चुप्पी का जिसे "सहनशीलता" कहकर ढका गया है।

जय माँ भारती🙏🏽

Sunday, 1 June 2025

बच्ची की माफी, समाज की बेबसी, और सत्ता की साज़िश

 22 वर्षीया शर्मिष्ठा ने जो कुछ कहा, वह अनुचित था। शब्द चयन और अभिव्यक्ति की मर्यादा का पालन उसे करना चाहिए था। यह हम स्वीकार करते हैं, और यही इस युग की सीख भी होनी चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जब भी मर्यादा की रेखा लांघती है, तो वह संवाद नहीं, विघटन का कारण बनती है।

परंतु प्रश्न यह है — क्या न्याय का तराजू अब विचारधारा और धर्म देखकर झुकता है?

शर्मिष्ठा ने अपने कथनों पर क्षमा याचना की थी — वह भी बिना शर्त, बारंबार। उसने स्पष्ट किया था कि उसकी प्रतिक्रिया पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद से उपजे आक्रोश की परिणति थी, न कि किसी सम्पूर्ण धर्म के प्रति अपमान का प्रयास। फिर भी, पश्चिम बंगाल पुलिस 1500 किलोमीटर दूर गुड़गांव तक पहुंचकर एक अकेली बच्ची को गिरफ्तार कर लाती है, मानो कोई देशद्रोही गढ़ से पकड़ा गया हो।

क्या यह कार्यवाही कानून की रक्षा है या सत्ता का प्रदर्शन?

यही बंगाल पुलिस, जब उसके अपने राज्य में मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तर 24 परगना में दंगे होते हैं, तो वही पुलिस निष्क्रिय पाई जाती है। न्यायालयों द्वारा बार-बार फटकार खाई जाती है। लेकिन एक बच्ची — जो न नेता है, न प्रभावशाली — उसे पकड़ने के लिए सारी ताकत झोंक दी जाती है।

क्यों?

क्या इसलिए कि इस कार्रवाई से एक विशेष मत-समूह को आश्वस्त किया जा सके? क्या यह गिरफ्तारी राजनीतिक संदेश वाहक है? क्या यह संकेत है कि "हम तुम्हारे हैं सनम"?

क्या यह वही लोकतंत्र है, जहाँ 'सर तन से जुदा' की धमकी देने वालों पर कोई कार्यवाही नहीं होती, लेकिन एक क्षमा मांगने वाली बच्ची पर पाँच एफआईआर दर्ज की जाती हैं?

क्या धमकी देना अपराध नहीं है, जब तक पीड़िता साधारण हो, सामान्य हो, अकेली हो?

शर्मिष्ठा के विरुद्ध कार्यवाही एक गहन प्रश्न खड़ा करती है — क्या भारत में अब कानून भी बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के लिए अलग-अलग हो गया है?

क्या यह सत्य नहीं कि सत्ताधारी दलों के कुछ सांसदों ने भगवान शिव का उपहास किया? शिवलिंग के बारे में अशोभनीय टिप्पणी की? क्या उन पर कोई कार्यवाही हुई? नहीं।

क्या यह भी सत्य नहीं कि कई स्वघोषित प्रगतिशील पत्रकारों, कॉमेडियनों और बुद्धिजीवियों ने बारंबार हिंदू प्रतीकों का उपहास किया है — और फिर भी उन्हें कोई पुलिस बुलाने नहीं आई?

फिर इस बच्ची को ही क्यों?

क्योंकि वह अकेली है? असंगठित है? या फिर इसलिए क्योंकि वह हिंदू है?

यह कोई शर्मिष्ठा का समर्थन नहीं, यह प्रश्न है — क्या भारत के संविधान की आंखों पर अब विचारधारा की पट्टी बंध चुकी  है?

भारत की आत्मा न्याय, समता और विवेक है। लेकिन जब अभिव्यक्ति की आज़ादी को राजनीतिक तुष्टिकरण की भेंट चढ़ा दिया जाता है, तब वह आज़ादी नहीं, एक व्यंग्य बन जाती है।

शर्मिष्ठा ने भूल की — स्वीकार किया। परंतु जिन लोगों ने उसे नग्न चित्रों में चित्रित किया, बलात्कार की धमकी दी, जला देने की बातें लिखीं — वे सब अब भी स्वतंत्र घूम रहे हैं। उनकी धमकियाँ न्याय के मापदंड से बाहर क्यों हैं?

यह मामला केवल एक बच्ची का नहीं है। यह प्रश्न है — क्या भारत का संविधान सभी नागरिकों के लिए समान है?

यह समाज के लिए एक सीख भी है और सत्ता के लिए एक चेतावनी भी।

आज शर्मिष्ठा की गिरफ्तारी हो रही है — कल यह चक्र किसी और की ओर घूम सकता है। यदि आज हम चुप रहे, तो कल हमारी भी अभिव्यक्ति शर्तों में बंधी होगी।

सत्य यही है कि भीड़ का उन्माद और सत्ता की सुविधा जब कानून का मार्गदर्शन करने लगें, तब लोकतंत्र का पतन तय है।

भारत एक सनातन राष्ट्र है — इसकी संस्कृति क्षमा, विवेक और संतुलन की रही है। हमें तय करना होगा कि हम उस संस्कृति के उत्तराधिकारी बने रहना चाहते हैं या राजनीतिक अवसरवाद के बंदी?

शर्मिष्ठा का प्रकरण भारत के हर सजग नागरिक के लिए एक प्रश्नपत्र है। उत्तर हमें देना है — ईमानदारी से, निष्पक्षता से, निर्भय होकर।

जय माँ भारती🙏🏽

Saturday, 31 May 2025

ऑपरेशन सिंदूर की आंच और पाक-परस्त विमर्श की राख

 सिंगापुर में आयोजित रक्षा-सुरक्षा सम्मेलन में भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) जनरल अनिल चौहान ने जब ऑपरेशन सिंदूर को लेकर अपनी बात रखी, तो यह न केवल भारत की सैन्य सफलता की पुनः पुष्टि थी, बल्कि उन सब झूठों का पर्दाफाश भी, जो पाकिस्तान और उसके अंतरराष्ट्रीय मुखबिरों द्वारा प्रचारित किए जा रहे हैं।

CDS ने बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारत ने जो लक्ष्य तय किए थे, वे पूरे किए। बहावलपुर, मुरीदके, मुजफ्फराबाद जैसे आतंक की फैक्ट्रियों को नेस्तनाबूद करना और पाकिस्तान की वायुसेना की रीढ़ तोड़ना — यही ऑपरेशन सिंदूर का ध्येय था, और यही हुआ भी। सेटेलाइट इमेज हों या जमीनी तस्वीरें — सब इस बात की गवाही देते हैं कि पाकिस्तान की रक्षा-संरचना बुरी तरह ध्वस्त हुई।

लेकिन हैरानी तब होती है, जब कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी, मीडिया संस्थान और विपक्षी नेता इस स्पष्ट विजयगाथा में से "विमान क्षति" जैसी बातें छांटकर पाकिस्तान के झूठे दावों को प्रमाणिकता देने में लग जाते हैं। जिस क्षति का उल्लेख स्वयं ऑपरेशन सिंदूर के समय ही कर दिया गया था — उसे अब “पहली बार की स्वीकारोक्ति” बताकर कौन-से हित साधे जा रहे हैं?

कौन-से एजेंडे को खाद-पानी दिया जा रहा है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति के “परमाणु युद्ध” वाले अनर्गल प्रलाप को आधार बनाकर भारत को जवाबदेह ठहराने की कोशिश होती है? क्या यह भारत की संप्रभुता को नीचा दिखाने का सुनियोजित प्रयास नहीं है?

और दुख इस बात का है कि पाकिस्तान के दुष्प्रचार में केवल चीन या पश्चिमी मीडिया ही सुर नहीं मिला रहे, हमारे अपने देश के कुछ नेता भी वही राग अलापने लगे हैं। कांग्रेस नेताओं द्वारा CDS चौहान के बयान की तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत की गई व्याख्या क्या राष्ट्रहित में है? या फिर यह पाकिस्तान के मनोबल को बढ़ावा देने की सस्ती राजनीति है?

सेना जब युद्धभूमि में रणनीति बदलती है, तो वह सैन्य कौशल कहलाता है — न कि विफलता। सैन्य भाषा में इसे "लक्ष्य की पूर्ति के लिए साधनों का अनुकूलन" कहते हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि राष्ट्रविरोधी विमर्श इस बात को समझने की न इच्छा रखता है, न ही योग्यता।

CDS चौहान ने न पाकिस्तान की भाषा बोली, न पश्चिम का एजेंडा स्वीकारा। उन्होंने केवल यह स्पष्ट किया कि भारत ने अपने सैन्य लक्ष्य पूरे किए — चाहे उसके लिए कुछ लड़ाकू विमानों की क्षति ही क्यों न हुई हो। लेकिन यदि यह क्षति पाकिस्तान की रीढ़ तोड़ने में सहायक हुई, तो क्या वह बलिदान नहीं कहलाएगा?

इसलिए अब आवश्यकता है — केवल सैन्य मोर्चे पर नहीं, वैचारिक मोर्चे पर भी सजग रहने की। ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के बाद जो वैचारिक युद्ध चलाया जा रहा है — उसमें हमें पाकिस्तान-परस्त नैरेटिव को सिरे से खारिज करना होगा। भारत की सेना ने जो किया, वह भारत की संप्रभुता और सुरक्षा के लिए आवश्यक था। और उसका सम्मान हर देशभक्त भारतीय का कर्तव्य है।

 

जय माँ भारती🙏🏽

Friday, 30 May 2025

जहाँ शब्द चूकते हैं, वहाँ ब्रह्मोस बोलता है

 वर्षों तक हमने सहा। हमारे मंदिर जले, हमारे सैनिक शहीद हुए, हमारे धैर्य की परीक्षा होती रही। हमने यथाशक्ति


विश्व को शांति का संदेश दिया। परंतु जब कोई राष्ट्र हमारे संयम को हमारी सीमा समझने लगे—तब भारत 'मर्यादा पुरुषोत्तम' नहीं, 'परशुराम' बनता है।

‘ऑपरेशन सिंदूर’ इसी चेतना का परिणाम था। और ब्रह्मोस—उस चेतना की ज्वाला!

यह कोई साधारण मिसाइल नहीं। यह भारत की चेतावनी नहीं, उस चेतना की वापसी है जो पांडवों के धैर्य के बाद अर्जुन की प्रत्यंचा खींचती है। अब भारत को उकसाना केवल राजनीति नहीं, आत्मघाती भूल है।

पांच सूत्र, जो शांति के लिए हैं—पर यदि आवश्यक हो, तो संहार के लिए भी

1. अब सीमा रेखाएँ नहीं, दुश्मन के अड्डे भी निशाने पर
ब्रह्मोस की मारक सीमा 800 किलोमीटर तक पहुँचेगी। लाहौर, रावलपिंडी, मियांवाली—अब ये शब्द केवल नक्शे पर नहीं, भारतीय सैन्य सोच की स्क्रीन पर होंगे।

2. गति की वह रेखा, जहाँ विज्ञान भी थमे
मैक-5 की हाइपरसोनिक गति! अर्थात, जब दुश्मन सोचेगा—तब तक ब्रह्मोस उसकी नींव तक पहुँच चुका होगा।

3. हर भारतीय विमान—अब आकाश का वज्र बनकर दहाड़ेगा
ब्रह्मोस अब हल्के विमानों से भी दागा जाएगा। राफेल, तेजस, सुखोई—अब आकाश से भारत की गर्जना करेंगे।

4. विस्फोट नहीं—शत्रु के अभिमान का संपूर्ण विध्वंस
इस बार विस्फोटकों में केवल शक्ति नहीं, भारत के भीतर संचित आक्रोश भी होगा—जो अपने हर प्रहार से यह कहेगा कि 'अब भारत को मतमांडो!'

5. धरती, आकाश, जल—तीनों से घात
नवीन पनडुब्बी परियोजनाओं से भारत का शत्रु यह भी नहीं समझ पाएगा कि प्रहार आएगा कहाँ से। अब हमारे उत्तर दिशाहीन नहीं, अचूक होंगे।

सिंदूर से रचा प्रतिशोध

‘ऑपरेशन सिंदूर’ में जब ब्रह्मोस दहाड़ा, तो उस दहाड़ में केवल तकनीक नहीं थी—उसमें कंधे पर बेटे की तस्वीर लिए बैठी माँ का मौन था। उसमें वह चीख थी, जो शहीद की बेटी ने रोकी थी। और वह ज्वाला थी, जो भारत की आत्मा में बरसों से ठंडी राख के नीचे जल रही थी।

अब वही ज्वाला अस्त्र बनकर उठी है। और जब भारत अस्त्र उठाता है—तो वह केवल युद्ध नहीं करता, वह इतिहास बनाता है।

यह नई ब्रह्मोस नहीं—यह नवभारत की घोषणा है

अब भारत को हल्के में लेने की भूल मत कीजिए। यह वह भारत है—जो वेद पढ़ता है और शस्त्र भी उठाता है। जो पहले नीति कहता है, फिर नींव हिला देता है।

अब भारत रक्षात्मक नहीं, प्रहारक है।
अब भारत मौन नहीं, मुखर है।
अब भारत प्रतीक्षा नहीं करता, निर्णय करता है।

 

जय माँ भारती🙏🏽

Thursday, 29 May 2025

आतंकी और सांसद—हाइफ़नेट या हाइ-ट्रेशन ?

 देश की राजनीति में विपक्ष का मजबूत होना लोकतंत्र की नींव है। लेकिन जब विपक्ष, सत्ता का विरोध करते-करते राष्ट्रहित के खिलाफ खड़ा दिखाई दे, जब आतंकियों और जनप्रतिनिधियों में अंतर मिटाने की कोशिश हो—तब सवाल सिर्फ राजनीतिक नहीं रह जाते, तब सवाल उठते हैं नीयत पर।

कांग्रेस के संचार विभाग के महासचिव जयराम रमेश ने हाल ही में जो कहा, वह न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि शर्मनाक भी। उन्होंने आतंकवादियों और सांसदों को एक ही पलड़े में रख दिया—“आतंकी भी इधर-उधर घूम रहे हैं, सांसद भी घूम रहे हैं।” यह कथन क्या है? गलती? ग़फ़लत? या एक सोची-समझी रणनीति कि कैसे हर राष्ट्रीय अभियान को विवादित बनाकर देश की सुरक्षा भावना को खोखला किया जाए?

यह संयोग नहीं—सिलसिला है

उड़ी हमले के बाद जब भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक किया—कांग्रेस ने उसे ‘नाटक’ कहा। पुलवामा के बाद बालाकोट एयरस्ट्राइक हुई—कांग्रेस ने सबूत मांगे। अब ऑपरेशन सिंदूर के बाद जब पूरा देश एकजुट है, कांग्रेस फिर वहीं खड़ी है—सवाल पूछती हुई, लेकिन सिर्फ सरकार से नहीं, सेना की नीयत और कार्रवाई पर भी।

उदित राज कहते हैं—शशि थरूर प्रधानमंत्री की ‘फर्जी सर्जिकल स्ट्राइक’ का महिमामंडन कर रहे हैं। सवाल है—क्या कांग्रेस को यह एहसास है कि वह सत्ता का विरोध करते-करते भारत की सेना को झूठा ठहरा रही है? क्या यह वही पार्टी है जिसने 1971 में पाकिस्तान को तोड़ दिया था? क्या अब वही पार्टी देश को तोड़ने वाली भाषा बोल रही है?

देश का विरोध, या मोदी का?

सवाल यह नहीं है कि कांग्रेस सरकार का विरोध कर रही है। सवाल यह है कि वह किस हद तक जा रही है। यदि सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक को ‘फर्जी’ कह दिया जाए, तो कल को क्या युद्ध भी ‘फर्जी’ कहलाएगा? क्या अगर प्रधानमंत्री को राजनीतिक लाभ मिल रहा हो, तो सेना की कार्रवाई को भी झुठला दिया जाएगा?

क्या कांग्रेस अब भी “इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा” के जाल में फंसी है? क्या आज भी अगर पार्टी चुनाव हारती है, तो लोकतंत्र हार जाता है? क्या लोकतंत्र केवल तब तक सही है, जब तक कांग्रेस जीत रही हो?

ये हाइफ़नेट नहीं, हाई-ट्रेशन है

जय राम रमेश ने कहा—सांसद भी घूम रहे हैं, आतंकी भी घूम रहे हैं। और इसे ‘हाइफ़नेट’ कहा गया—एक ही रेखा से दोनों को जोड़ने की कोशिश। लेकिन यह कोई भाषायी चतुराई नहीं, यह राजनीतिक देशद्रोह की भाषा है। यह हाई-ट्रेशन है, हाइफ़नेट नहीं। क्या कांग्रेस नहीं समझती कि उसने अपने ही जनप्रतिनिधियों और देश की संसद को किस पायदान पर ला खड़ा किया है?

सलाह नहीं, चेतावनी

कांग्रेस अगर समझती है कि इस तरह वह भाजपा को घेर पाएगी, तो वह भूल में है। सरकार को हराने के लिए राष्ट्रीय स्वाभिमान को हराना एक खतरनाक प्रयोग है। और यह प्रयोग न कांग्रेस के लिए लाभकारी होगा, न भारत के लिए।

हम कांग्रेस को एक सलाह देना चाहते थे, लेकिन अब वक़्त चेतावनी का है:
सत्ता में लौटने के लिए भारत से मत टकराइए। भारत से टकराने वाले कभी लौटकर नहीं आते।

जय माँ भारती🙏🏽


Sunday, 25 May 2025

तेज प्रताप की कहानी में गुम दो औरतों की आवाज़

 राजनीति सिर्फ सत्ता का खेल नहीं होती — यह लोगों की भावनाओं, रिश्तों, और जीवन की सबसे निजी परतों तक में दाख़िल हो जाती है। तेज प्रताप यादव की कहानी, चाहे आप इसे प्रेम गाथा कहें या पारिवारिक विद्रोह, दरअसल उसी राजनीति की एक त्रासद तस्वीर है, जहाँ न कोई पूरी तरह मासूम है, और न ही कोई पूरी तरह दोषी।

प्यार था, तो फिर विवाह क्यों?

तेज प्रताप कहते हैं कि उन्हें 'मोहब्बत' थी — एक ऐसी भावना जिससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता। पर अगर यह मोहब्बत इतनी सच्ची थी, तो विवाह का निर्णय क्यों लिया गया? और अगर विवाह कर लिया था, तो फिर उसे पूरी ईमानदारी से निभाया क्यों नहीं गया?

क्या यह सवाल हम सबके ज़ेहन में नहीं उठना चाहिए? क्या तेज प्रताप ने विवाह को केवल एक पारिवारिक औपचारिकता मानकर निभाया, बिना यह समझे कि इसमें केवल दो नाम नहीं, बल्कि दो ज़िंदगियाँ, दो आत्माएँ जुड़ती हैं? एक लड़की जिसे उन्होंने अपना जीवनसाथी बनाया — क्या वह सिर्फ एक ‘राजनीतिक मोहरा’ बनकर रह गई?

दो लड़कियाँ — और टूटी उम्मीदें

तेज प्रताप के फैसलों के बीच दो महिलाओं की ज़िंदगियाँ ऐसी उलझीं कि अब शायद कोई सुलझाव मुमकिन नहीं। एक वह पत्नी, जिससे उन्होंने विवाह किया पर फिर उस रिश्ते से मुँह मोड़ लिया; दूसरी वह युवती, जिससे वे कहते हैं कि उन्हें प्रेम था, पर जिसे कभी सामाजिक मान्यता नहीं मिल सकी।

क्या इन दोनों महिलाओं के साथ न्याय हुआ? या फिर वे केवल तेज प्रताप की कहानी का ‘साइड कैरेक्टर’ बनकर रह गईं, जिनकी भावनाएँ, सम्मान और जीवन की स्थिरता सब कुछ कुर्बान कर दी गई, सिर्फ इसलिए क्योंकि एक पुरुष अपनी भावनात्मक और पारिवारिक उलझनों से जूझ रहा था?

समाज — तेज प्रताप का रक्षक, और औरतों का मौन दर्शक?

हमारा समाज भी कम दिलचस्प किरदार नहीं है इस कहानी में। तेज प्रताप की हर बात पर सहानुभूति, हर आँसू पर संवेदना, और हर ‘प्रेम स्वीकृति’ पर तालियाँ... लेकिन क्या हमने कभी इन दो महिलाओं की आँखों में झाँकने की कोशिश की?

क्या हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि शादी टूटना सिर्फ कोर्ट केस नहीं, एक स्त्री की आत्मा के चिथड़े-चिथड़े हो जाने जैसा होता है? क्या मोहब्बत अधूरी रह जाना सिर्फ एक ‘इमोशनल फुटनोट’ नहीं, बल्कि कई वर्षों की मानसिक यातना बन जाता है?

राजनीति का पर्दा — जहाँ हर कोई अपनी भूमिका निभा रहा है

इस पूरे प्रकरण में सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि कोई भी पूरी तरह निर्दोष नहीं दिखता। तेज प्रताप, परिवार, विरोधी दल, मीडिया — सबने इस कहानी में अपनी-अपनी स्क्रिप्ट के अनुसार अभिनय किया है। भावनाओं को राजनीति में भुनाया गया, व्यक्तिगत पीड़ा को पब्लिक सिम्पैथी में बदला गया, और सच्चे सवालों को मीडिया की हेडलाइन में दबा दिया गया।

और अंत में...

यह सिर्फ तेज प्रताप यादव की निजी कहानी नहीं है — यह हमारे पूरे सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने पर एक बड़ा सवाल है। क्या हम रिश्तों को इतनी आसानी से राजनीति की बलि चढ़ा सकते हैं? क्या हम समाज के रूप में इतनी सहानुभूति केवल पुरुष के लिए रखेंगे, और स्त्रियों को केवल ‘त्याग की मूर्ति’ बनाकर भूल जाएँगे?

यह कहानी एक प्रेम त्रिकोण नहीं, बल्कि समाज, राजनीति और व्यक्तिगत स्वार्थ के उस तिकोन की कहानी है, जहाँ हर कोना चुभता है — और सबसे ज्यादा चोट उन्हें लगती है, जो सबसे कम बोलते हैं।

भारत का आर्थिक उत्कर्ष : शिखर की ओर स्वाभिमानी यात्रा

 भारत ने वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में एक और स्वर्णिम अध्याय जोड़ा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) द्वारा जारी नवीनतम आँकड़ों के अनुसार भारत ने जापान को पीछे छोड़ते हुए अब विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का स्थान प्राप्त कर लिया है। यह तथ्य मात्र संख्यात्मक उपलब्धि नहीं, अपितु एक समग्र राष्ट्र-यात्रा की गाथा है — जिसमें संकल्प, श्रम, नीति और दूरदृष्टि सम्मिलित हैं।

नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बी. वी. आर. सुब्रह्मण्यम द्वारा घोषित यह उपलब्धि, भारत की 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की सकल घरेलू उत्पाद (GDP) को रेखांकित करती है। यह घोषणा ऐसे समय पर हुई है जब ‘विकसित भारत 2047’ के संकल्प की दिशा में नीति आयोग तथा राज्यों के प्रतिनिधियों ने संयुक्त मंथन किया है। ऐसे में यह आर्थिक उत्कर्ष, केवल एक आँकड़ा नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय आत्मविश्वास की अभिव्यक्ति है।

भारत की आर्थिक गति वैश्विक औसत की तुलना में कहीं अधिक तेज़ है। IMF का अनुमान है कि भारत वर्ष 2025 में 6.2% तथा 2026 में 6.3% की दर से विकास करेगा, जबकि समस्त विश्व की अनुमानित वृद्धि दर क्रमशः 2.8% और 3% है। यह विभेद न केवल भारत की आंतरिक शक्ति का संकेत देता है, बल्कि विश्व में उसकी बढ़ती भूमिका को भी दर्शाता है।

सहयोग, नवाचार और समावेशन की राह पर

'विकसित राज्य से विकसित भारत' के भावपूर्ण लक्ष्य को लेकर दिल्ली में संपन्न नीति आयोग की दसवीं गवर्निंग काउंसिल बैठक में यह स्पष्ट हुआ कि भारत अपनी विकास-यात्रा को अब मात्र आंकड़ों की दौड़ नहीं, बल्कि समावेशी, पर्यावरण-संवेदनशील और नवाचार-प्रेरित दृष्टिकोण से देख रहा है। विनिर्माण, सेवाएँ, ग्रामीण तथा शहरी गैर-कृषि क्षेत्र, अनौपचारिक श्रम, हरित एवं परिपथीय अर्थव्यवस्था जैसे विषयों पर गहन विमर्श, यह दर्शाता है कि भारत भविष्य की नहीं, वर्तमान की तैयारियाँ कर रहा है।

टेक-ऑफ़ की वेला में भारत

सीईओ सुब्रह्मण्यम द्वारा किया गया यह कथन कि "भारत टेक-ऑफ़ स्टेज पर है", एक साधारण वाक्य नहीं, बल्कि एक व्यापक यथार्थ का द्योतक है। जिस प्रकार कोई विमान अपनी उड़ान से पूर्व अत्यधिक ऊर्जा और संतुलन अर्जित करता है, उसी प्रकार भारत अब उन सभी बुनियादी सुधारों, संरचनात्मक बदलावों और रणनीतिक पहलों के बल पर ऊर्ध्वगामी उड़ान के लिए प्रस्तुत है।

अंतिम विचार

इस आर्थिक उत्थान को मात्र वैश्विक मान्यता के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए, अपितु यह राष्ट्र की आंतरिक चेतना, युवा शक्ति, उद्यमिता तथा शासन व्यवस्था की सुदृढ़ता का प्रतीक है। यदि भारत इसी गति से आगे बढ़ता रहा तो वह केवल वैश्विक आर्थिक शक्ति नहीं, बल्कि एक नैतिक, सांस्कृतिक और नीति-प्रेरक नेतृत्वकर्ता के रूप में भी उभरेगा।

‘विकसित भारत 2047’ का स्वप्न अब एक धुंधली आकांक्षा नहीं, अपितु एक संभाव्य और साकार गंतव्य प्रतीत होता है — जहाँ भारत न केवल आर्थिक दृष्टि से समृद्ध होगा, बल्कि न्यायसंगत, समावेशी और आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में विश्वपटल पर अपना वर्चस्व स्थापित करेगा।

जय माँ भारती🙏🏽