Wednesday, 15 October 2025

मेरी दीदी ऐसी नहीं हो सकती: बंगाल में इंसानियत का जनाज़ा

 पश्चिम बंगाल—मां दुर्गा की भूमि, शक्ति की आराधना का प्रदेश, रविंद्रनाथ टैगोर और सुभाष चंद्र बोस की धरती—आज बेटियों के लिए नरक बन चुकी है। दुर्गापुर का आईक्यू सिटी मेडिकल कॉलेज, 10 अक्टूबर 2025 की रात, इस पीड़ा का सबसे कड़वा सबूत है। 23 वर्षीय एमबीबीएस छात्रा, इंसानियत बचाने के लिए डॉक्टर बनने निकली, पांच दरिंदों के हाथों सामूहिक बलात्कार का शिकार बनी।

और उसके बाद क्या हुआ? हमारी महिला मुख्यमंत्री, हमारी “मेरी दीदी”, कहती हैं: “लड़की रात को बाहर क्यों निकली?”
ऐसी संवेदनहीनता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दीदी, यह आप कैसे कह सकती हैं? क्या आप सचमुच यह मानती हैं कि अपराधियों की फितरत बदल जाएगी अगर बेटियां घर की चारदीवारी में कैद रहें? क्या अपराधियों को लाइसेंस देने की यह नैतिकता है?

यह पहली बार नहीं है। 2012 की पार्क स्ट्रीट घटना, 2013 का मॉल मामला, 2015 में 72 वर्षीय नन के साथ बलात्कार, 2022 की हंसखाली की बर्बर हत्या—हर बार दोष पीड़िता पर ठहराया गया। बंगाल में बलात्कार, एसिड अटैक और यौन अपराधों में साल-दर-साल वृद्धि हो रही है। 2023 में राज्य में दर्ज बलात्कार मामले 1010, नाबालिक 27। एसिड अटैक के मामले 57, जो देश में सबसे अधिक हैं।

दीदी, आपकी संवेदनहीनता की हद देखिए—पीड़िता के जख्मों पर नमक छिड़कना और अपराधियों के हौंसले बढ़ाना। आपकी पार्टी की फेमिनिस्ट महिला नेता भी खामोश हैं। संसद में बेटियों के हक की बात करने वाले, अपने राज्य में बेटियों की चीख क्यों नहीं सुनते? क्या यह पाखंड नहीं, या चरम दुष्टता है?

रविवार, 10 अक्टूबर 2025 की रात:
23 वर्षीय छात्रा, दोस्त के साथ खाना खरीदने निकली। कॉलेज गेट पर फोन छीन लिया गया, घसीटा गया और जंगल में ले जाया गया। पांच दरिंदों ने सामूहिक बलात्कार किया। और पुलिस? या सरकार? किसी ने सुरक्षा नहीं दी।

दीदी, क्या आप यही सोचती हैं कि बेटियों को घर में कैद करना ही सुरक्षा है? क्या बंगाल में अपराधियों को खुली छूट दी जाएगी, बस इसलिए कि आप सोचती हैं पीड़िता दोषी है?

दुर्गापुर की यह घटना केवल बिंदु नहीं है, यह पूरे राज्य की नाकामी का प्रतीक है। हर साल, हर महीने, हर दिन—पीड़ितों के आंसू, उनकी चीखें, उनके जख्म आपकी संवेदनहीनता की वजह से बढ़ते हैं।

दीदी, यह सोच केवल महिला मुख्यमंत्री के लिए शर्मनाक नहीं है, यह मानवता की हत्या है। क्या हम स्वीकार करेंगे कि बेटियों की सुरक्षा और न्याय सिर्फ एक राजनीतिक वाक्य या आंकड़े बनकर रह गया है? क्या हम सहेंगे कि आपकी संवेदनहीनता अपराधियों को हौंसला देती रहे, और पीड़ित हमेशा दोषी बनी रहे?

गुंडों की हिम्मत, पुलिस की नींद, और आपकी संवेदनहीनता—तीनों ने मिलकर बंगाल में बेटियों के लिए नरक बना दिया है।
दुर्गापुर ही नहीं, हंसखाली, संदेशखाली, राणाघाट—हर जगह वही कहानी। हर जगह अपराधी बेखौफ। हर बार वही तर्क—पीड़िता दोषी, अपराधी बेकसूर।

अब सवाल यह है—मेरी दीदी, कब तक आप खुली बाज़ार में बेटियों के अपमान को सहेंगी? कब तक बेटियों को घर की चारदीवारी में कैद रहकर अपनी इज्जत बचानी होगी? कब तक अपराधी बेखौफ घूमते रहेंगे और आपकी सरकार उनका ढाल बनेगी?

पश्चिम बंगाल में नैतिकता का पतन नहीं हुआ, इंसानियत का जनाज़ा निकल चुका है।
अब वक्त है, जनता की आवाज़ उठाने का। सड़क से संसद तक, घर से हर मंच तक, बेटियों के हक के लिए लड़ना पड़ेगा। और हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह इस जनाज़े का विरोध करे।

मेरी दीदी, ऐसी नहीं हो सकती!
संवेदनहीनता की यह सीमा पार नहीं हो सकती। अपराधियों को बचाना, पीड़ित को दोषी ठहराना, मीडिया पर हमला—यह सब अस्वीकार्य है। बंगाल की बेटियों के लिए न्याय चाहिए, सुरक्षा चाहिए, और सबसे बड़ी आवश्यकता—संवेदनशील नेतृत्व की।

Sunday, 28 September 2025

ट्रॉफी से परे: भारत की आत्मसम्मान यात्रा

 टी20 एशिया कप 2025 का फाइनल केवल एक खेल नहीं था। यह मुकाबला हार-जीत से कहीं ऊपर, भारत के सम्मान, आत्मसम्मान और संस्कारों का था। मैं खुद इन मैचों का बहिष्कार करने का निर्णय कर चुका था और आज भी उस विचार पर कायम हूँ। लेकिन भारतीय टीम ने प्रेजेंटेशन में जो प्रदर्शन किया, उसने मेरे जैसी सोच रखने वाले हर भारतीय का मन मोह लिया और गौरव से भर दिया।


सूर्यकुमार यादव, शुभमन गिल, अभिषेक शर्मा, हार्दिक पांड्या और पूरी टीम ने बिना ट्रॉफी के ट्रॉफी का जश्न मनाकर पाकिस्तान की नफरत और आतंकवाद पर टिकी मानसिकता के सामने खुला तमाचा दिया। मोहसिन नकवी के हाथों से ट्रॉफी न लेने का निर्णय केवल खेल का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय गौरव और विचारधारा का प्रतिपादन था। यह कदम स्पष्ट करता है कि भारत अब केवल मैदान पर ही नहीं, बल्कि हर मंच पर पाकिस्तान की नापाक हरकतों और प्रोपेगेंडा को बेनकाब करेगा।

भारतीय खिलाड़ियों की हर चाल, हर रणनीति और हर प्रदर्शन ने यह स्पष्ट किया कि भारत खेल के नाम पर राजनीति करने वाले पाकिस्तान को कभी नजरअंदाज नहीं करेगा। बुमराह की गति, तिलक वर्मा का आक्रामक अंदाज, हार्दिक पांड्या का आत्मविश्वास—ये सभी भारत की ताकत और रणनीति का जीवंत प्रमाण थे। मैदान पर यह प्रदर्शन न केवल पाकिस्तान को चुनौती देने वाला था, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक, राजनीतिक और राष्ट्रीय चेतना की जीत भी थी।

बीसीसीआई द्वारा घोषित 21 करोड़ का पुरस्कार ऑपरेशन सिंदूर और पाकिस्तान को हराने की रणनीति का प्रतीक है। हर चौका, हर रन और हर फोटो ने पाकिस्तान की अहंकारी मानसिकता और खेल को गंदी राजनीति का हिस्सा बनाने की कोशिश को नकारा। आज यह स्पष्ट हो गया कि भारत केवल सीमाओं पर ही नहीं, बल्कि हर मंच पर अपनी विचारधारा, गौरव और आत्मसम्मान की रक्षा करने के लिए सशक्त है।

यह मैच केवल क्रिकेट का नहीं था। यह देश की आन, मान और शान का युद्ध था। पाकिस्तान ने वर्षों से खेल को अपनी नापाक राजनीति का हथियार बनाया। लेकिन इस बार भारतीय टीम ने मैदान पर, सोशल मीडिया पर और हर फोटो में स्पष्ट संदेश दिया—ना सिर्फ खेल, बल्कि विचारधारा, संस्कार और राष्ट्रीय आत्मसम्मान की जीत हुई है।

यह वह पल है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनेगा और याद दिलाएगा कि भारत किसी भी दुश्मन को हर मोर्चे पर चुनौती देने और उसका जवाब देने में सक्षम है।

भारत माता की जय। जय हिंद।

Saturday, 13 September 2025

कल देशभक्ति छुट्टी पर रहेगी

 कल भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट का तमाशा है। वही पाकिस्तान जिसने हमारी धरती पर गोलियाँ बरसाईं, हमारे सैनिकों को शहादत की आग में झोंका, और हर बार पीठ में खंजर घोंपा। और हम? हम उनके साथ खेलेंगे। चौकों-छक्कों पर झूमेंगे। विज्ञापनों से पैसा कमाएँगे। खुद को खेल-प्रेमी बताकर चैन की नींद सोएंगे। यह कैसी विडंबना है—शहीदों की चिताएँ अभी भी धधक रही हैं, और हम दुश्मन के साथ बल्ला घुमा रहे हैं।

कहते हैं—“स्पोर्ट्स मस्ट गो ऑन।” लेकिन सवाल यह है—क्या खेल देश से बड़ा है? क्या क्रिकेट का कारोबार शहीदों के लहू से ऊपर है? यह कैसी आत्मवंचना है कि ट्विटर पर हैशटैग चलाकर, प्रोफ़ाइल फोटो बदलकर, काली पट्टी बाँधकर हम अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ लेते हैं और अगली ही घड़ी टीवी स्क्रीन से चिपक जाते हैं। बिरयानी और हलवे के बीच देशभक्ति का स्वाद कब तक खोजा जाएगा?


शहीद परिवार की आँखों से पूछिए। तिरंगे में लिपटे बेटे को विदा करने वाली माँ को क्या फर्क पड़ता है कि सूर्यकुमार ने कितने रन बनाए, या गेंदबाज़ ने कितनी विकेट लीं? उस विधवा से पूछिए जिसकी माँग से सिंदूर मिटा दिया गया—क्या पाकिस्तान पर क्रिकेट की जीत उसका दर्द कम कर सकती है? नहीं। उनके लिए यह खेल तमाचा है। हर चौका, हर छक्का उनके बलिदान पर तिरस्कार है, क्योंकि इसमें उनका क़र्ज़ भूलकर दुश्मन को गले लगाया जाता है।

सच यही है—कल देशभक्ति छुट्टी पर होगी। मैदान में बल्ला गूँजेगा। स्टेडियम में तालियाँ बजेंगी। टीवी पर विज्ञापन चमकेंगे और करोड़ों रुपये बरसेंगे। लेकिन कहीं कोई माँ अपने बेटे की तस्वीर देखकर रोएगी, कहीं कोई बच्चा अपने पिता की वर्दी के बिना सोएगा। और हम उस दर्द को अनदेखा करके दुश्मन के साथ खेलेंगे—जैसे कुछ हुआ ही न हो।

देशभक्ति ट्वीट की मोमबत्ती नहीं है जो तीन महीने में बुझ जाए। यह त्याग और तपस्या की आग है, जिसे हर पल जलाए रखना पड़ता है। क्रिकेट का यह कारोबार उस आग पर राख डालने का काम करता है। असली सवाल यही है—हम दुश्मन के साथ खेलकर किसे धोखा दे रहे हैं? पाकिस्तान को? नहीं। खुद को।

कल की जीत या हार स्कोरबोर्ड पर नहीं, हमारे विवेक पर दर्ज होगी। और इतिहास पूछेगा—उस दिन देशभक्ति मैदान में थी या छुट्टी पर?

 

Tuesday, 9 September 2025

नेपाल : संयोग की आड़ में प्रयोग?

 नेपाल की धरती बीते 48 घंटों में जिस उथल-पुथल से गुज़री, उसने पूरे दक्षिण एशिया को चौंका दिया। महज़ सोशल मीडिया बैन से उपजा जनाक्रोश इस सीमा तक पहुँच गया कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को देश छोड़कर भागना पड़ा, संसद भवन धधक उठा और पूरी व्यवस्था चरमरा गई। प्रश्न उठता है—क्या यह केवल युवाओं का स्वतःस्फूर्त विद्रोह था या किसी गहरे प्रयोग की परिणति?


एशिया में अस्थिरता का पैटर्न

यदि हाल के वर्षों पर दृष्टि डालें तो एक स्पष्ट पैटर्न दिखाई देता है—

  • 2021 : म्यांमार में आंग सान सू की की सरकार गिरती है।
  • 2022 : श्रीलंका में राजपक्षे सत्ता से भागते हैं।
  • 2024 : बांग्लादेश में छात्र-आंदोलन शेख हसीना को सत्ता से बाहर कर देता है।
  • 2025 : नेपाल की सत्ता मात्र दो दिनों में भरभराकर गिर जाती है।

क्या यह सब केवल संयोग है?

आचार्य चाणक्य का संकेत

आचार्य चाणक्य नीति (अध्याय १०, श्लोक ६) में कहते हैं—

“अनपेक्षितं यद्भवति तत्तत्र दैवसंयोगः।
यत्र पुनः पुनः लाभः स यत्नप्रयोजनः॥”

(अर्थ: जो घटना अप्रत्याशित रूप से घटित हो, वह संयोग या दैवयोग कहलाती है; किन्तु जहाँ बार-बार समान प्रकार का लाभ किसी पक्ष को होता है, वहाँ यह समझना चाहिए कि उसके पीछे निश्चित ही प्रयत्न और प्रयोजन—षड्यंत्र या योजना—छिपी है।)

एशिया में छोटे देशों की बार-बार अस्थिरता—कभी चीन-निकट सरकार गिरती है, कभी अमेरिका-विरोधी नेतृत्व हटता है—क्या चाणक्य के इस सूत्र को प्रमाणित नहीं करती?

डीप स्टेट और रंग-बिरंगे आंदोलन

आजकल “डीप स्टेट” शब्द बहुत प्रचलित है। यह वही अदृश्य तंत्र है जिसमें खुफ़िया एजेंसियाँ, बड़े कॉर्पोरेट, अंतरराष्ट्रीय एनजीओ और मीडिया मिलकर किसी राष्ट्र की राजनीति को अपनी दिशा में मोड़ते हैं। पश्चिम इसे कलर रिवोल्यूशन कहते हैं।

  • जॉर्जिया का रोज़ रिवोल्यूशन,
  • यूक्रेन का ऑरेंज रिवोल्यूशन,
  • हांगकांग का अम्ब्रेला मूवमेंट—

इन सबमें युवाओं को सोशल मीडिया के माध्यम से संगठित कर लोकतंत्र के नाम पर सत्ता परिवर्तन कराया गया। नेपाल की हाल की हलचल भी वैसी ही प्रतीत होती है।

बांग्लादेश और नेपाल : अद्भुत समानता

2024 में बांग्लादेश का छात्र-आंदोलन भी एक छोटे ट्रिगर—कोटा प्रोटेस्ट—से शुरू हुआ था। कुछ ही सप्ताह में वह भयंकर रूप लेकर शेख हसीना सरकार को निगल गया। नेपाल में भी चार सितंबर को अमेरिकी ऐप्स पर प्रतिबंध लगाया गया, और देखते-देखते 8-9 सितंबर को संसद पर हमला हो गया। दोनों जगह आंदोलन लीडरलेस और विकेन्द्रित (डिसेंट्रलाइज्ड) रहे, परंतु संगठन और समन्वय अद्भुत।

क्या यह महज़ संयोग है कि हर जगह परिणाम वही निकला—सरकार का पतन, सत्ता का परिवर्तन और विदेशी हितों का साधन?

भारत के लिए चेतावनी

भारत के चारों ओर का भू-राजनीतिक परिदृश्य अस्थिरता से भरा हुआ है—पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, बांग्लादेश और अब नेपाल। प्रश्न यह है कि क्या यह अस्थिरता केवल आंतरिक विफलताओं का परिणाम है या भारत-विरोधी शक्तियों का सुनियोजित प्रयोग?

भारत का लोकतंत्र मज़बूत है, सेना और संस्थाएँ सुदृढ़ हैं। परंतु इतिहास गवाह है कि बड़ी शक्तियाँ जब छोटे देशों को मोहरे की तरह खेल सकती हैं, तो भारत को भी अस्थिर करने की कोशिशें असंभव नहीं। ऐसे में भारत को केवल अपनी सीमाओं पर ही नहीं, बल्कि पड़ोसियों में स्थिरता सुनिश्चित करने में भी सक्रिय भूमिका निभानी होगी।

आगे का मार्ग

नेपाल के युवाओं की माँगें जायज़ हो सकती हैं—भ्रष्टाचार और दमनकारी नीतियों का विरोध स्वाभाविक भी है—परंतु संसद भवन को आग लगाकर, अपने ही संसाधनों को नष्ट कर, कोई भी राष्ट्र मज़बूत नहीं बनता। आंदोलन तभी सार्थक होते हैं जब वे राष्ट्र-निर्माण की दिशा में ले जाएँ, न कि राष्ट्र-विनाश की ओर।

नेपाल को आज ठहरकर सोचना होगा कि वह स्वतंत्र भविष्य का निर्माण करना चाहता है या किसी विदेशी शक्ति की चालों में मोहरा बनना।

भारत को भी सजग रहना होगा, क्योंकि यह केवल नेपाल का संकट नहीं—यह पूरे दक्षिण एशिया की स्थिरता की परीक्षा है।

अंतिम बिंदु

नेपाल की यह उथल-पुथल क्या केवल संयोग है या किसी गहरे प्रयोग का परिणाम? चाणक्य का सूत्र हमें सचेत करता है कि जब घटनाएँ बार-बार एक ही दिशा में लाभ पहुँचाएँ, तो यह समझ लेना चाहिए कि उसके पीछे किसी की योजना, किसी का प्रयोजन और किसी की साजिश अवश्य है।

Sunday, 31 August 2025

जाति की प्यास बुझाने को मासूम का रक्त!

 राजस्थान की रेत में बहा वह मासूम का खून सिर्फ़ एक बच्चे का नहीं, बल्कि इस राष्ट्र के आत्मसम्मान पर किया गया प्रहार है। बाड़मेर की यह घटना हमें झकझोर देती है—सिर्फ़ आठ वर्ष के एक दलित बालक को इसलिए पीटा गया और पेड़ से उल्टा लटकाया गया क्योंकि उसने पानी का घड़ा छू लिया! सोचिए, यह 21वीं सदी का भारत है, जहाँ चाँद पर तिरंगा लहराता है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई में अभी भी जातिगत घृणा की जंजीरें इंसानियत का गला घोंट रही हैं।


भाखरपुरा गाँव में नरनाराम प्रजापत और देमाराम प्रजापत जैसे दरिंदों ने मानवता को शर्मसार कर दिया। पहले उस नन्हे से बालक को बाथरूम साफ़ करने और कचरा उठाने का आदेश दिया, और जब उसने प्यास से तड़पकर पानी माँगा और घड़े को छू लिया, तब उसके छोटे-से शरीर पर लाठियाँ बरसाईं। क्या यही धर्म है? क्या यही संस्कृति है? क्या किसी जलघट को छू लेने से जाति का अपमान हो जाता है?

जब बच्चा छटपटा रहा था, जब उसका शरीर हवा में उल्टा लटका कर पीटा जा रहा था, तब इस समाज की अंतरात्मा कहाँ सो रही थी? उसकी माँ पुरी देवी और दादी ने बीच-बचाव किया तो उन पर भी हमला कर दिया गया। क्या मातृत्व का दर्द भी इस पिशाच प्रवृत्ति को नहीं रोक पाया?

यह घटना सिर्फ़ अपराध नहीं है, यह पाप है, यह वह अधर्म है जिसे न समाज सहन कर सकता है और न ही राष्ट्र। "पानी का घड़ा" यहाँ प्रतीक है उस व्यवस्था का, जो आज भी कुछ हाथों को शुद्ध और कुछ को अशुद्ध मानती है। यह सोच हमें विभाजित करती है और भारत की आत्मा को घायल करती है।

सवाल यह है कि आखिर कब तक हम जाति की बेड़ियों में बँधे रहेंगे? कब तक किसी दलित, किसी शोषित, किसी वंचित को इंसान होने का अधिकार छीन लिया जाएगा? यह समय केवल संवेदना व्यक्त करने का नहीं, बल्कि प्रचंड रोष से उठ खड़े होने का है।

राजस्थान पुलिस ने एक आरोपी को गिरफ्तार किया है, दो हिरासत में हैं। लेकिन क्या इतनी ही कार्रवाई से न्याय मिलेगा? क्या पीढ़ियों से दलितों पर ढाए जा रहे अन्याय का प्रायश्चित इतनी आसानी से संभव है?

आज ज़रूरत है कि इस अपराध को सामान्य अपराध न मानकर ‘सामाजिक विद्रोह के अपराध’ के रूप में देखा जाए। कठोरतम दंड, सार्वजनिक निंदा और चेतना की क्रांति—यही इस ज़हर का उपचार है।

भारत का हर नागरिक इस नन्हे शिशु की पीड़ा को अपनी पीड़ा माने और प्रण ले कि इस देश में किसी जलघट को छूने पर कोई बच्चा फिर कभी अपमानित न हो। यह लड़ाई सिर्फ़ उस बच्चे की नहीं, बल्कि "भारत की आत्मा" की है।

यह अन्याय नहीं रुकेगा जब तक हम रौद्र बनकर अन्याय की जड़ों को उखाड़ न फेंकें।

 

Thursday, 28 August 2025

सिर्फ आँकड़े नहीं : 7,000 चीखें हर साल, 18 चिताएँ हर दिन

 क्या यह वही भारत है, जो अपनी बेटियों को आकाशगंगा तक उड़ते देखने का सपना देखता है? वही भारत, जहाँ बेटियां फौज की वर्दी पहनकर सरहद पर डटती हैं, अंतरिक्षयान को दिशा देती हैं और विज्ञान, कला, खेल हर क्षेत्र में परचम फहराती हैं? और क्या यही भारत है, जहाँ हर दिन अठारह बेटियां दहेज के दानवों की बलि चढ़ाई जाती हैं?


राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की चीखती हुई पंक्तियाँ बताती हैं—हर वर्ष सात हज़ार से अधिक बहनों की जिंदगियाँ दहेज के कारण बुझा दी जाती हैं। पिछले बीस वर्षों में डेढ़ लाख से अधिक चिताएँ जल चुकी हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्य आज मानो बेटियों की समाधि-स्थली बन चुके हैं।

यह आँकड़े ठंडी गिनती नहीं, बल्कि राख में बदल चुके सपनों की गवाही हैं। वैशाली की शिवांगी, बरेली की रानी, गाज़ियाबाद की मुस्कान, दिल्ली की कोमल और तिरुवर की रिद्धना—ये सब सिर्फ नाम नहीं, हमारे हृदय की धड़कनें थीं। परंतु उनकी साँसें दहेज की आग ने छीन लीं। किसी के पिता ने बेटी की चिता ससुराल की चौखट पर जलाई, किसी माँ ने अपनी आँखों के सामने लाल जोड़े में विदा की हुई संतान की राख समेटी। यह पीड़ा शब्दों में नहीं बाँधी जा सकती।

समाज की चुप्पी भी अपराध है।
जब अखबार में ऐसी खबरें आती हैं, हम पन्ना पलट देते हैं। टीवी पर सुनते हैं, आगे बढ़ जाते हैं। हमें फर्क क्यों नहीं पड़ता? क्या हमारी आत्मा इतनी कठोर हो चुकी है कि बेटियों की चीखें सुनाई ही नहीं देतीं? क्या हमने तय कर लिया है कि यह सब ‘न्यू नॉर्मल’ है—जहाँ शादी सौदे की मंडी बन चुकी है और बेटियों की जान की बोली लगती है?

कानून तो है—1961 का दहेज निषेध अधिनियम। पर यह कानून किताबों में कैद है। सच्चाई यह है कि आज तक एक भी दहेज हत्यारे को फाँसी की सज़ा नहीं मिली। पुलिस की ढिलाई, गवाहों का डर, अदालतों की सुस्ती और समाज की उदासीनता—ये सब मिलकर हत्यारों को निर्भीक बनाते हैं। उन्हें पता है कि कुछ दिन जेल में रहकर वे फिर दहेज की नई मंडी में लौट आएँगे।

पर सवाल है—क्या यह जिम्मेदारी केवल कानून की है?
नहीं। यह जिम्मेदारी हम सबकी है।

  • माता-पिता की, जो बेटियों को आत्मनिर्भर बनाने के बजाय विवाह-पूजा की बलिवेदी पर चढ़ा देते हैं।

  • बेटियों की, जो चुप्पी साध लेना धर्म समझती हैं।

  • बेटों और पुरुषों की, जो शादी को सौदा बना देते हैं और दहेज माँगना अपना अधिकार।

  • और समाज की, जो इन भिखारी मानसिकता वाले लोगों का बहिष्कार करने की जगह उनका स्वागत करता है।

दहेज लेना मर्दानगी नहीं, कायरता है।
सच्चा पुरुष वह है जो अपनी जीवनसंगिनी को सम्मान दे, न कि उसकी कीमत लगाए। विवाह कोई व्यापार नहीं, संस्कार है। जो पुरुष अपनी पत्नी को कीमत के तराजू पर तोलता है, वह न पौरुष का अधिकारी है, न सम्मान का।

आज आवश्यकता है कि बेटियां अपनी चुप्पी तोड़ें, माता-पिता उन्हें शिक्षा और आत्मनिर्भरता दें, समाज दहेज लेने वालों का बहिष्कार करे और न्याय व्यवस्था ऐसे अपराधियों को कठोरतम दंड दे। जब तक दहेज हत्याओं में फांसी की सज़ा की नजीर नहीं बनेगी, तब तक यह राक्षस दम नहीं तोड़ेगा।

भारत के पास विकल्प दो ही हैं—
या तो हम अपनी बेटियों की चिताओं की आँच को यूँ ही सहते रहें,
या फिर उस आग को हथियार बनाकर दहेज की इस बर्बर प्रथा को जला डालें।

यह निर्णय हमें लेना होगा। क्योंकि सवाल यही है—कब तक जलेंगी हमारी बेटियां?

कूटनीति के कुरुक्षेत्र में भारत का संकल्प अडिग

 “जब एक उभरती हुई शक्ति अपने पैरों पर खड़ी होती है, तो विश्व की पुरानी महाशक्तियाँ कांपने लगती हैं। आज भारत खड़ा है, और अमेरिका काँप रहा है।”


अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में भारत के खिलाफ जिस तरह की धमकीभरी भाषा का इस्तेमाल किया है, वह न केवल असंवैधानिक है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के बुनियादी शिष्टाचार का भी अपमान है। रूस से तेल खरीदने पर भारत को भारी-भरकम जुर्माने की धमकी देना और भारत से आयातित सभी वस्तुओं पर 25% टैरिफ थोपना—यह कौन-सी दोस्ती है? और इससे भी बड़ा प्रश्न—क्या यह अमेरिका के हित में है?

भारत का स्पष्ट संदेश—हम दबाव में नहीं झुकते!

ट्रंप की गीदड़भभकी के बाद भारत ने दो टूक शब्दों में कह दिया—हम अपनी ऊर्जा नीति अपनी ज़रूरतों और राष्ट्रीय हितों के आधार पर तय करते हैं, न कि किसी व्हाइट हाउस की खिड़की से आए आदेश पर। ऊर्जा विशेषज्ञ नरेंद्र तनेजा के अनुसार, अगर अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते भारत रूस से तेल खरीद बंद भी करता है, तो इसका नुकसान भारत से कहीं ज्यादा अमेरिका को होगा, क्योंकि वह खुद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल आयातक है।

यानी ट्रंप की धमकी का परिणाम होगा—तेल की कीमतें आसमान पर और अमेरिका की महंगाई बेलगाम।

ट्रंप की नीति: बिना रोडमैप की धमाकेदार गाड़ी

मशहूर उद्योगपति और टेस्टबेड चेयरमैन किर्क लुबिमोव ने ट्रंप की नीतियों को “रणनीतिक आत्महत्या” करार दिया है। उन्होंने करारा तंज कसते हुए कहा—“अगर अमेरिका चीन के प्रभुत्व को चुनौती देना चाहता है, तो भारत ही एकमात्र वास्तविक विकल्प है। लेकिन ट्रंप तो 50 सेंट का टूथब्रश भी खुद बनाने को तैयार नहीं!”

यह कोई नई बात नहीं कि अमेरिका ने हमेशा भारत की स्वतंत्र विदेश नीति से असहजता महसूस की है। लेकिन आज का भारत 90 के दशक का आर्थिक गुलाम भारत नहीं, जो वाशिंगटन से हर फैसले की स्वीकृति माँगे।

ट्रंप के तंज पर भारत का करारा जवाब—“हम डूबती नहीं, उभरती अर्थव्यवस्था हैं”

राष्ट्रपति ट्रंप ने जब यह कहा कि “भारत और रूस अपनी मरी हुई अर्थव्यवस्थाओं के साथ डूब सकते हैं,” तो भारत ने भी जवाब देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने संसद में गर्जना करते हुए कहा—“भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है, जो जल्द ही तीसरे स्थान पर होगा। हम Global Growth Engine बन चुके हैं, और वैश्विक विकास में हमारा 16% योगदान है।”

क्या ट्रंप को यह याद दिलाना पड़ेगा कि भारत अब ‘Third World Country’ नहीं रहा? यह वही भारत है, जो अपनी जनसंख्या, बाज़ार, रक्षा और विज्ञान में अमेरिका को भी टक्कर देने की स्थिति में है।

रूस से तेल खरीद—हक़ का व्यापार, न कि अपराध

भारत मई 2025 में रूस से रोज़ाना लगभग 1.96 मिलियन बैरल तेल आयात कर रहा है, जो उसके कुल आयात का 38% है। यूक्रेन युद्ध के बाद रूस से सस्ते तेल की आपूर्ति भारत के लिए एक आर्थिक संजीवनी रही है। तो क्या अमेरिका को तकलीफ इस बात से है कि भारत ने उनकी अनुमति के बिना अपने राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखा?

सच तो यह है कि भारत अब केवल एक “विकसित होने वाला देश” नहीं, बल्कि “नीतिनिर्धारक राष्ट्र” बन चुका है।

क्या अमेरिका एशिया में प्रभाव खो रहा है?

विश्लेषक मानते हैं कि ट्रंप की टकराव की नीति केवल भारत ही नहीं, बल्कि अमेरिका के दीर्घकालिक रणनीतिक हितों को चोट पहुँचा रही है। किर्क लुबिमोव ने चेताया—“ट्रंप का कार्यकाल इन देशों के लिए अस्थायी झटका है, लेकिन वे दीर्घकालिक रणनीति से चलते हैं।” यानी अमेरिका आज जो गड्ढा खोद रहा है, उसमें वह खुद गिर सकता है।

अमेरिका अगर चीन को नियंत्रित करना चाहता है, तो उसे भारत के साथ आर्थिक साझेदारी चाहिए, साजिश नहीं। लेकिन ट्रंप भारत को ‘शत्रु’ मानकर वही कर रहे हैं, जो चीन की सबसे बड़ी चाहत थी—भारत और अमेरिका को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना।

निष्कर्ष: भारत अब आदेश नहीं लेता, संप्रभु निर्णय करता है

यह समय दुनिया को यह याद दिलाने का है कि भारत अब वो देश नहीं, जो आयात और सहायता के लिए दर-दर भटके। यह भारत अब अपना तेल भी खुद तय करता है, अपने व्यापारिक साझेदार भी, और अपने आत्मसम्मान की रक्षा भी।

डोनाल्ड ट्रंप सुन लें—भारत न तो दबाव में आता है, न धमकियों से डरता है। क्योंकि भारत केवल उभरती नहीं, अब जाग चुकी अर्थव्यवस्था है। और जो राष्ट्र जागता है, वह झुकता नहीं—वह दुनिया की दिशा तय करता है।

“हम वही जो कूटनीति से रण रचें,
और समय के साथ स्वाभिमान रचें।
बात जब सम्मान की आती है,
हम व्यापार नहीं, प्रतिकार रचें!”

यह लेख 3 अगस्त 2025 को प्रकाशित हुआ था।

This article was published on 3rd August 2025.

Friday, 18 July 2025

चुप रहो, क्योंकि तुम्हारी बेटी नहीं थी!

 कभी 'धर्मस्थल' कहलाने वाला स्थान अब एक ऐसा शब्द बन गया है जो ज़ुबान पर आते ही मन घृणा, पीड़ा और आक्रोश से भर उठता है। कर्नाटक के इस गांव से जो रहस्य उघड़ा है, वह किसी एक मंदिर, एक संस्थान या किसी अपराधी की कहानी नहीं है — यह एक सभ्यता के भीतर सड़न का ऐलान है।


एक व्यक्ति—जो वर्षों तक मंदिर प्रशासन से जुड़ा सफाईकर्मी रहा—अब सामने आया है। उसने कहा है कि उसे बलात्कार के बाद मारी गई बच्चियों और महिलाओं के शव जलाने और दफनाने पर मजबूर किया गया।
ज़रा सोचिए… यह समाज कहाँ तक गिर चुका है कि कोई दशकों तक बेटियों की जली हुई देहों को दफनाता रहा, और पूरे समाज को भनक तक न लगी—or लगी भी हो, तो फर्क किसे पड़ा?

हाँ, यही है असली सवाल –
"किसे फर्क पड़ता है?"
इस 'Who cares' नामक सामाजिक महामारी ने हमारी आत्मा को भस्म कर दिया है।

उस व्यक्ति ने जो खुलासा किया है, वह सिर्फ अपराध नहीं, हमारी सामूहिक चुप्पी की कब्रगाह है।
उसने मानव अवशेषों की तस्वीरें दी हैं—उन हड्डियों की जो कभी किसी की बेटी थीं।
उन चूडियों की राख दी है, जिनमें कभी किसी कन्या का सपना चमकता था।
उस मिट्टी को खोदकर दिखाया है, जिसमें हमारा जमीर भी दफन है।

अब वह व्यक्ति भय में जी रहा है। क्यों?
क्योंकि सच बोलने वालों की जान इस देश में सबसे सस्ती है।
और झूठ बेचने वालों की कुर्सी सबसे महंगी।

सरकार अब तक चुप है।
मंदिर प्रशासन मौन है।
और समाज—वो तो इस ख़बर के अगले स्लाइड पर जा चुका है।
जैसे कुछ हुआ ही न हो।
जैसे बेटियों की चीखें किसी डील का हिस्सा थीं।

तो क्या हम स्वीकार कर लें कि अब इस देश में बलात्कार के बाद शव भी संस्थागत व्यवस्था में 'मैनेज' किए जाते हैं?
क्या अब ये स्वीकार करना बाकी रह गया है कि पवित्रता के नाम पर अपवित्रता का कारोबार चलाना भी धार्मिक सेवा में गिना जाने लगा है?

हमारा आक्रोश किसके लिए है?
क्या केवल तब जब पीड़िता हमारी जाति, हमारा वर्ग, हमारा चुनावी मुद्दा बनती है?
क्या बाकी बेटियाँ केवल आँकड़े हैं?

ये आग अगर तुम्हारे घर तक नहीं पहुँची, तो मत सोचो कि वो बुझ गई है।
ये वही आग है जो एक दिन हमारी आत्मा, हमारी सभ्यता और हमारी भाषा – सबकी चिता जलाएगी।

ध्यान रखना—इस बार राख सिर्फ एक लड़की की नहीं, हमारी पूरी नैतिकता की होगी।
अगर आज भी तुम चुप हो, तो फिर तुम सिर्फ दर्शक नहीं, सहभागी हो।

Thursday, 17 July 2025

संस्कृति बोलती रही, करुणा मौन थी

हमारे देश में 'संस्कृति' शब्द का ऐसा उपयोग हो रहा है जैसे यह कोई राजनीतिक नारा हो—जहाँ ज़रूरत पड़े, फेंक दो सामने।
मुद्दा चाहे मॉडर्न कपड़ों का हो, किसी मूर्ति की ऊँचाई का हो, या किसी लड़की की हँसी का — तुरन्त 'भारतीय संस्कृति' की लाठी उठ जाती है।
लेकिन जैसे ही कोई ज़िम्मेदारी का सवाल आता है — कोई मानवता, करुणा, सेवा, सहनशीलता या त्याग का प्रसंग — तो यही संस्कृति अचानक बहरापन ओढ़ लेती है।


आगरा की घटना ने यह सारा ढोंग उघाड़कर रख दिया।
ताजमहल घूमने आया एक परिवार अपने पैरालाइज्ड बुज़ुर्ग को कार में हाथ-पैर बांधकर बंद कर गया।
दम घुटने की हालत में वो बुज़ुर्ग पड़े रहे — न कोई पानी, न देखभाल — बस गाड़ी में बंद एक ‘प्राणी’ की तरह।
अगर कुछ गाइडों की सजगता न होती, तो शायद वह बुज़ुर्ग इस "संस्कृति-प्रेमी" परिवार के दर्शन काल में ही प्राण त्याग चुके होते।

और जवाब क्या मिला?
“वो पहले से पैरालाइज थे, इसलिए बांधकर छोड़ा।”

बस? इतना ही? यही है हमारी संस्कृति?
क्या अब ‘देखभाल’ का अर्थ केवल ‘बांध देना’ रह गया है?

हमारे ग्रंथों में कहा गया —
“श्रवण कुमार के कंधों पर संस्कार चलते थे।”
आज की पीढ़ी के पास SUV है, पर मनुष्यता नहीं।
ताजमहल में तस्वीरें ली जा रही थीं, और वहीं कार में एक जीवन सिसक रहा था।
किसी को अंतर नहीं पड़ा — क्योंकि हमने 'संस्कृति' को व्यवहार नहीं, सुरक्षा कवच बना लिया है — अपने पापों की ढाल।

सच यह है कि हम संस्कृति को जीते नहीं,
बस संस्कृति का शोर करते हैं।

हमारे पास सोशल मीडिया पर उपदेश हैं,
टेलीविज़न डिबेट में गला फाड़ने की ऊर्जा है,
लेकिन अपने ही परिवार के असहाय सदस्य को इंसान समझने की फुरसत नहीं।

गाइडों ने कार का लॉक तोड़ा, जान बचाई।
क्योंकि वे संस्कृति नहीं, ‘संवेदना’ जानते थे।

अब सवाल सीधा है —
यदि संस्कृति केवल कपड़ों, खानपान, मूर्तियों और नारों तक सीमित है,
तो वह सिर्फ़ ध्वनि है — न मूल्य है, न आत्मा।

हमें तय करना होगा —
हम 'संस्कृति' के नाम पर कब तक केवल ढोल पीटते रहेंगे?
कब वह दिन आएगा जब यह शब्द केवल शब्द न रहकर व्यवहार बन जाएगा?

जिस दिन हर बुज़ुर्ग को सम्मान, हर निर्बल को सहारा, और हर मनुष्य को मनुष्य समझा जाएगा —
तब हम कह सकेंगे — "हाँ, यही है हमारी संस्कृति।"
आज नहीं। बिल्कुल नहीं।

Wednesday, 16 July 2025

जला दो ये मौन — सौम्यश्री मर चुकी है!"

 "ये समाज क्या सचमुच मर चुका है? क्या हमारी आत्मा इतनी सस्ती हो चुकी है कि अब बेटियों की चीखें तब तक सुनाई नहीं देतीं जब तक वे राख बनकर हवाओं में घुल न जाएं?"

उड़ीसा के बालासोर जिले की 20 साल की बीएड छात्रा सौम्यश्री मिश्री ने आत्महत्या नहीं की — उसे इस सड़ चुके समाज, इस दुराचार से सने तंत्र, और संवेदनहीनता की कीचड़ में लथपथ व्यवस्था ने जला डाला।

उसका अपराध क्या था?


कि उसने अपनी इज्जत को 'नंबरों' और 'अटेंडेंस' के बदले सौंपने से मना कर दिया?
कि उसने 'ना' कहा?
या फिर कि उसने वह हिम्मत दिखाई जो इस मुल्क की लाखों लड़कियाँ डर से नहीं दिखा पातीं?

गुरु नहीं, नरपिशाच था समीर साहू

जिसे शिक्षक कहते हैं, वह 'एचओडी' समीर कुमार साहू, सौम्यश्री को महीनों से गलत नजरों से देख रहा था। उससे अनुचित मांगें कर रहा था। जब उसने विरोध किया, तो उसकी अटेंडेंस काटी गई, परीक्षा में फेल किया गया, मानसिक उत्पीड़न का इतना भयानक दौर चला कि सौम्यश्री टूटने लगी।

लेकिन वह झुकी नहीं। उसने लिखा, बोला, लड़ा — कॉलेज प्रिंसिपल दिलीप घोष को शिकायत दी, सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली, शासन-प्रशासन तक गुहार लगाई। लेकिन ये निकम्मा तंत्र तब तक नहीं हिला जब तक उसकी देह लपटों में बदल नहीं गई।

वो जलती रही और हम देखते रहे

12 जुलाई 2025 को सौम्यश्री ने प्रिंसिपल ऑफिस के सामने खुद पर पेट्रोल डालकर आग लगा ली।
95% जली।
एम्स भुवनेश्वर में वेंटिलेटर पर पड़ी रही।
14 जुलाई की रात 11:30 पर मौत हो गई।

लेकिन टीवी पर नहीं चला।
कोई कैमरा नहीं पहुंचा।
कोई राष्ट्रीय एंकर, जो दिन-रात एक्टिंग करने वालों के चोट पर 5 घंटे की बहस करता है — वो नहीं पहुंचा।

क्यों?

क्योंकि सौम्यश्री की चीखें 'टीआरपी' नहीं थीं।
उसकी राख में 'ब्रेकिंग न्यूज़' का मसाला नहीं था।
वो न्यूज़ बिकाऊ नहीं थी, बस जली हुई थी।

क्या बेटियाँ अब केवल तब सुनी जाएँगी जब वे जल मरें?

आज हर कॉलोनी, हर कॉलेज, हर दफ्तर में कोई न कोई सौम्यश्री अकेली लड़ रही है। उसके ऊपर कोई साहू बैठा है, कोई दिलीप घोष बैठा है, कोई 'प्रशासन' उसकी आवाज़ दबा रहा है। लेकिन जब वो खुद को आग लगा ले, तब हम अचानक ‘सदमे’ में आ जाते हैं।

सवाल यह है: सदमे में आप हैं या बेशर्मी में?

इस मुल्क में नारी के खिलाफ अपराध 'नया सामान्य' बन चुका है

कुछ दिनों पहले पुरुषों की आत्महत्या की खबरें आईं—अतुल, सुभाष, राजा रघुवंशी। उनपर बहस होनी चाहिए, लेकिन सोशल मीडिया ने उसे स्त्री विरोध के ट्रेंड में बदल दिया। जैसे सौम्यश्री जैसी लड़कियाँ अब ‘पुरानी बात’ हो गई हैं। जैसे महिलाओं के साथ बलात्कार, शोषण, हत्या अब किसी को झकझोरते ही नहीं।

क्या आँकड़े चाहिए?

एनसीआरबी कहता है: 2022 में 31,516 रेप केस। हर दिन 86। हर घंटे 3 से ज्यादा।
लेकिन हम इतने मूर्छित हो चुके हैं कि अब इन आँकड़ों पर आक्रोश नहीं आता।
क्योंकि जबतक चीखें ग्लैमर में लिपटी न हों, हम उन्हें सुनते नहीं।

माफ़ कीजिए—अब खामोशी अपराध है

सौम्यश्री अकेली लड़ी।
उसने बताया, सबूत दिए, सोशल मीडिया पर खुलेआम लिखा — “अगर न्याय नहीं मिला तो जान दे दूंगी।”
लेकिन किसी ने नहीं सुना।

अब जब वो नहीं है, हम शोक में पोस्ट डाल रहे हैं।

बिलकुल नहीं! अब समय शोक का नहीं, क्रांति का है।

अब बहुत हो चुका—या तो जागो, या फिर चुपचाप अगली चिता देखो

  • हर कॉलेज में महिलाओं के लिए कड़े, जवाबदेह शिकायत निवारण तंत्र हों।

  • हर शिकायत पर तुरंत कार्रवाई हो।

  • दोषी चाहे कोई भी हो — टीचर, प्रिंसिपल, अफ़सर — कानून की लाठी बिना रुके चले।

  • मीडिया को बिकाऊ खबरें नहीं, जलती बेटियों की चीखों को प्लेटफ़ॉर्म देना होगा।

और समाज?

तुम चुप मत रहो।
क्योंकि अगली बार सौम्यश्री की जगह तुम्हारी बेटी, तुम्हारी बहन, तुम्हारी छात्रा हो सकती है।

अंत नहीं—अभियान की शुरुआत है

अगर सौम्यश्री की मौत के बाद भी आप चुप हैं, तो यकीन मानिए — अब आप भी इस हत्यारे तंत्र का हिस्सा हैं।
बेटियाँ तब तक अकेली मरती रहेंगी जब तक हम collectively चीखना नहीं सीखेंगे।

अब सवाल ये नहीं कि सौम्यश्री क्यों मरी।

अब सवाल ये है—

क्या आप जिंदा हैं?

Tuesday, 24 June 2025

श्रद्धा लहूलुहान है, और हम चुप हैं!

 क्या यही वह पावन भूमि है जहाँ संतों के चरणों में सम्राट नतमस्तक होते थे?

क्या यही वह संस्कृति है जिसने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उद्घोष किया था?
क्या यह वही सनातन धर्म है जो शबरी के झूठे बेरों में ईश्वर का स्वाद खोज लेता था?

इटावा के दादरपुर गाँव में जो हुआ, वह केवल दो कथावाचकों का अपमान नहीं था — यह धर्म की आत्मा पर प्रहार था।
यह प्रहार था उस मूल चिंतन पर जो कहता है कि ईश्वर सबका है, और ईश्वर की कथा पर सबका समान अधिकार है।

मुकुटमणि यादव और संत कुमार — दो कथावाचक, जिन्हें श्रीमद्भागवत कथा सुनाने के लिए आमंत्रित किया गया था।
दिन भक्ति का था, मंच भगवान का था, वातावरण श्रद्धा से भरा हुआ था — लेकिन फिर अचानक, जाति की तलवार लहराई गई।
जैसे ही कथावाचकों की जाति का 'ज्ञान' हुआ, वही श्रद्धालु भीड़ क्रोध में बदल गई। किसी ने चोटी काटी, किसी ने सिर मुंडवाया, किसी ने चेहरों पर मूत्र छिड़का और किसी ने जूते पर माथा रगड़वाया।

और यह सब उस आंगन में हुआ जहाँ ईश्वर का नाम लिया जा रहा था।

यह कैसा धर्म है जो पहले जाति पूछता है फिर कथा सुनता है?
यह कैसा समाज है जो श्रीराम का नाम लेकर भक्ति करता है, लेकिन शबरी की तरह भक्ति करने वालों से घृणा करता है?

जिस भगवान ने कभी किसी से जाति नहीं पूछी —
जिसने निषादराज को गले लगाया, शबरी के बेर खाए, सुदामा से मित्रता निभाई —
वही भगवान आज अपने ही नाम पर किए जा रहे जातिवादी उत्पात का मूक दर्शक बन चुके हैं।

और मैं यह कहने में कोई संकोच नहीं करता...
जो लोग मंदिरों को जातिवाद से गंदा कर रहे हैं, वे धर्म के नहीं, अधर्म के साधक हैं।

कुछ कहेंगे — कथावाचक ने जाति छिपाई थी। दो आधार कार्ड थे। नामों में अंतर था।
मान भी लें — तो क्या उसका उत्तर यह होगा कि आप उसे अपमान और हिंसा के नर्क में धकेल दें?
क्या कोई कथावाचक इसलिए अपवित्र हो गया क्योंकि वह ब्राह्मण नहीं था?

नहीं! यह 'झूठ' कारण नहीं था, यह केवल बहाना था। असली अपराध था 'भक्ति' का — वह भक्ति, जो जाति की जंजीरें तोड़ने का साहस करती है।

और वह समाज जो चुप है — वह भी कम दोषी नहीं।
जो मौन रहकर तमाशा देख रहा था, जो तालियाँ बजा रहा था,
वह भी धर्म का अपराधी है।

मैं पूछता हूँ—

  • क्या एक कथावाचक का सम्मान अब उसकी जाति तय करेगी?

  • क्या यही वह परंपरा है जहाँ "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" कहा गया था?

  • क्या यही वह समाज है जो कहता है — हर जीव में ब्रह्म का अंश है?

अगर हमने अब भी आँखें मूंदीं तो यह जाति की आग केवल एक गाँव को नहीं, पूरे समाज की बुनियाद को राख कर देगी।

आज धर्म संकट में है — और यह संकट बाहर से नहीं, भीतर से आया है।
मंदिरों के गर्भगृहों में, कथा के मंचों पर, भक्ति के बीच, जातिवाद का वायरस फैल चुका है।
और जब तक हम इसे जड़ से नहीं उखाड़ते, तब तक हम किसी भी ‘धर्मरक्षक’ कहलाने योग्य नहीं।

यह केवल मुकुटमणि या यादव समाज की लड़ाई नहीं है।

यह हिंदू समाज की आत्मा की लड़ाई है।
यह धर्म की मर्यादा, कथा की पवित्रता और ईश्वर के सम्मान की रक्षा की लड़ाई है।

तो पूछिए स्वयं से—

  • क्या हम ऐसी घटनाओं से धर्म परिवर्तन को बल नहीं दे रहे?

  • क्या हमारी संकीर्णता से कोई हमारी जड़ें नहीं छोड़ रहा?

  • क्या हम सच में इतने असहिष्णु हो चुके हैं कि अपनी ही जनसंख्या को ठुकरा रहे हैं?

हम खुद को घटा रहे हैं।
सोचिए — क्या हम एक भी जन को खोने का जोखिम उठा सकते हैं?

सोचिए। डरिए।
और ईश्वर का अपमान करना बंद कीजिए।

ईश्वर जात नहीं पूछते — वे केवल भक्ति देखते हैं।
और जब हम जाति के नाम पर भक्तों को अपमानित करते हैं,
तो हम ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध जा रहे होते हैं।

अब संकोच नहीं, प्रतिकार होगा।

अब निंदा नहीं, निर्णय होगा।
अब भी यदि हम नहीं जागे, तो भगवान भी हमें क्षमा नहीं करेंगे।

जात नहीं, धर्म की बात हो — यही हमारा संकल्प हो।
मूक नहीं, मुखर हो — यही हमारी आस्था की अग्निपरीक्षा है।

 

Thursday, 12 June 2025

राख में दबे सपनों की चीख

 12 जून 2025 को अहमदाबाद का आसमान एक ऐसी त्रासदी का साक्षी बना, जिसने 145 करोड़ भारतीयों के दिलों को दहला दिया। एयर इंडिया की फ्लाइट AI-171, जो लंदन के लिए रवाना हुई थी, उड़ान भरने के केवल 59 सेकंड के भीतर आग का गोला बनकर धरती पर गिर पड़ी। इस भयावह हादसे में 242 में से 241 यात्रियों की जान चली गई। जो लोग चंद क्षण पहले अपने सपनों के साथ उड़ान भर रहे थे, वे पिघले हुए मलबे में तब्दील हो गए। केवल एक यात्री — रामविश्वास कुमार — इस मृत्यु के समंदर से किसी चमत्कार की तरह जीवित लौट पाए।

पर यह त्रासदी केवल एक विमान दुर्घटना नहीं थी। यह हमारे समय के उस गहरे डर की कहानी है जो अब हर उड़ान में हमारे साथ बैठेगा। हर बार जब कोई पायलट कहेगा — "We are ready for take-off" — तब हमारे दिलों में यह सवाल उठेगा कि क्या हम सही-सलामत लौटेंगे?

इस विमान में बैठे लोग कोई आकस्मिक यात्री नहीं थे। वे सपनों को आकार देने निकले थे। राजस्थान का जोशी परिवार — डॉक्टर प्रतीक, डॉक्टर कामिनी और उनके तीन मासूम बच्चे; नवविवाहिता खुशबू, जो शादी के तीन महीने बाद पहली बार अपने पति से मिलने लंदन जा रही थी; मणिपुर की 22 वर्षीय एयर होस्टेस नंगा थोई शर्मा, जिसने पिछले वर्ष ही अपने सपनों को पंख दिए थे; गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूणी और उनका परिवार — सभी की जीवनगाथाएं अधूरी रह गईं। हर तस्वीर अब एक जली हुई याद बनकर रह गई है।

यह हादसा केवल मौत की गिनती नहीं है। यह सवाल है — कि उड़ान भरते ही विमान कैसे गिर पड़ा? प्रारंभिक जांच में संकेत मिला है कि विमान ने रनवे की पूरी लंबाई का उपयोग नहीं किया, जिससे आवश्यक टेक-ऑफ स्पीड नहीं मिल पाई। दोनों इंजनों का अचानक बंद हो जाना, पायलट द्वारा इमरजेंसी सिग्नल भेजने के बावजूद प्रतिक्रिया न मिलना — ये सारे संकेत किसी गंभीर तकनीकी गड़बड़ी की ओर इशारा करते हैं।

बोइंग 787 ड्रीमलाइनर, जो विश्व में अपने सुरक्षित रिकॉर्ड के लिए प्रसिद्ध है, इस हादसे में धधकता हुआ गिरा। जांच एजेंसियों की निगाह अब ब्लैक बॉक्स पर टिकी है। परन्तु सबसे बड़ा सवाल वही रह जाता है — यदि तकनीकी त्रुटियां थीं तो उड़ान भरने की अनुमति कैसे दी गई? क्या निरीक्षण प्रक्रिया इतनी लचर थी?

टाटा समूह ने मृतकों के परिजनों को एक-एक करोड़ रुपये की सहायता देने की घोषणा की है। पर क्या धन उन परिवारों की पीड़ा का मूल्य चुका सकता है? क्या कोई भी मुआवजा उस मां का आँचल फिर से हरा कर सकता है जिसने अपनी गोद का चिराग खो दिया? क्या किसी मासूम बच्चे की मासूम हंसी लौटाई जा सकती है जिसने अपने पिता को हमेशा के लिए खो दिया?

यह हादसा केवल अहमदाबाद का नहीं है। यह हर उस भारतीय का है जो कभी भी, किसी भी एयरपोर्ट पर अपने परिजनों को अलविदा कहता है। हर बार जब कोई विद्यार्थी विदेश पढ़ने जाता है, कोई दुल्हन ससुराल के लिए रवाना होती है, कोई व्यवसायी नए सपनों की खोज में निकलता है — हर बार अब यह डर भी साथ रहेगा।

हमारे देश का विमानन इतिहास पहले भी हादसों से दागदार रहा है। 1996 में चरखी दादरी की टक्कर में 349 जिंदगियाँ खत्म हो गई थीं। वर्षों बीतने के बाद भी हम इन हादसों से सीख नहीं पा रहे हैं। हर हादसे के बाद वही शब्द — तकनीकी खराबी, मानवीय त्रुटि, सिस्टम फेल्योर, और कभी-कभी साजिश की अटकलें। परंतु मूल प्रश्न वही रहता है — यात्रियों की जान इतनी सस्ती क्यों है?

यह समय है कि भारत अपने विमानन तंत्र में व्यापक सुधार करे। रनवे, मेंटेनेंस, निरीक्षण, पायलट ट्रेनिंग, और एयर ट्रैफिक कंट्रोल — हर स्तर पर शून्य सहिष्णुता की नीति लागू करनी होगी। हमें केवल मुआवजा बांटने के लिए नहीं, बल्कि हादसों को रोकने के लिए तैयार रहना होगा।

क्योंकि हर हादसे के बाद हम बस यही सोचते रह जाते हैं — कि उस विमान में कोई अपना भी हो सकता था... या हम खुद हो सकते थे।

अब हमें इस डर के साथ जीना नहीं सीखना चाहिए, बल्कि ऐसे कदम उठाने चाहिए कि फिर कोई अहमदाबाद हादसा न दोहराया जाए।

नमन उन 241 दिवंगत आत्माओं को। प्रार्थना है कि फिर कभी किसी उड़ान में ऐसी विभीषिका न घटे, जिसमें समूचे राष्ट्र की आत्मा ही जल उठे।


The image was created by ChatGPT

अपवादों के सहारे सम्पूर्ण नारीत्व को अपराधी घोषित किया जा रहा है

 भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में विवाह मात्र दो व्यक्तियों का नहीं, अपितु दो वंशों, दो कुलों एवं दो परिवारों का पावन मिलन माना गया है। यह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, सात जन्मों तक चलने वाला अटूट बंधन है, जिसमें विश्वास, समर्पण और परस्पर श्रद्धा का अद्वितीय समावेश होता है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि कालान्तर में यह पवित्र संस्था अनेक विकृतियों एवं विडंबनाओं की शिकार होती जा रही है।


वर्तमान काल में आए दिन कुछ अत्यंत हृदय विदारक घटनाएँ समाज के सम्मुख आती हैं — कहीं पत्नी द्वारा पति की हत्या, कहीं उत्पीड़न से तंग आकर पति की आत्महत्या, कहीं वैवाहिक जीवन में अपमान, तो कहीं कानूनों के दुरुपयोग के प्रकरण। ये घटनाएँ समाज में क्षोभ, पीड़ा एवं आक्रोश का वातावरण निर्मित करती हैं। और तब कुछ स्वर यह कह उठते हैं —
"यही है स्त्रियों को अधिकार देने का परिणाम।"

परंतु क्या कुछ अपवादात्मक घटनाओं के आधार पर समस्त स्त्री समाज को कटघरे में खड़ा कर देना न्यायोचित है? क्या यह सनातन भारतीय संस्कृति के विनाश का पूर्व संकेत है?

सत्य यह है कि आज भी भारतवर्ष की असंख्य महिलाएँ घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना एवं मानसिक उत्पीड़न की अंतहीन पीड़ा सह रही हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े स्वयं इसका प्रमाण हैं —
वर्ष 2017 से 2022 के मध्य भारत में दहेज के कारण 35,493 नवविवाहिताओं की हत्या हुई।
केवल वर्ष 2020 में ही 'घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम, 2005' के अंतर्गत 496 प्रकरण पंजीकृत हुए।

यह तो वे मामले हैं जो न्यायालय की दहलीज तक पहुँचे।
वास्तविकता की गहराई इन आंकड़ों से कहीं अधिक भीषण और पीड़ादायक है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि इन आंकड़ों का एक प्रतिशत भी उन मामलों में परिवर्तित किया जाए, जहाँ महिलाओं ने पुरुषों के विरुद्ध उत्पीड़न किया हो, तो संभवतः वहां आंकड़ों की शून्यता ही दृष्टिगोचर होगी।

विवाह संस्था में व्याप्त दहेज प्रथा का दंश आज भी उतना ही जीवित है जितना कि पूर्वकाल में था। यह लेन-देन मात्र विवाह-मंडप तक सीमित नहीं रहता।
विवाह के उपरांत प्रत्येक पर्व, संस्कार, जन्मोत्सव एवं पर्वों पर कन्या पक्ष से उपहारों, धन, वस्त्र, आभूषण आदि की अनवरत माँग बनी रहती है।
और विडंबना यह कि इतना सब देने के उपरांत भी मायके पक्ष का हृदय भयाकुल रहता है —
कहीं ससुराल वाले अप्रसन्न न हो जाएँ।
कहीं बिटिया को अपमान, तिरस्कार, ताने या मारपीट न झेलनी पड़े।
कहीं वह घर उजड़ न जाए, कहीं उसकी देह ही न छिन जाए।

माता-पिता की प्रत्येक साँस इस भय के साथ चलती है।
उनकी प्रत्येक प्रार्थना में यही स्वर उठता है —
"हे ईश्वर! बस मेरी बेटी का घर बसाए रखना।"

किन्तु जब कभी कोई बहु साहस कर अन्याय के विरुद्ध स्वर उठाती है, तब वही समाज जो उसकी पीड़ा को वर्षों अनदेखा करता रहा, उसे ही कठघरे में खड़ा कर देता है।
और तब पुनः वही जड़ मानसिकता मुखर हो उठती है —
"यही है स्त्रियों को अधिकार देने का परिणाम।"

यह कथन उस मानसिकता का नग्न प्रतिबिंब है जो आज भी स्त्री को सम्मानपूर्वक स्वतंत्रता देने से कतराती है। समस्या स्त्री की स्वतंत्रता में नहीं है, समस्या है — उसे उसके अधिकारों के साथ जीने देने की मानसिकता में।

यह भी सत्य है कि कुछ अपवादस्वरूप महिलाएँ अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहीं हैं। झूठे आरोप, असत्य मुकदमे, प्रताड़ना के मिथ्या प्रकरणों ने कई निर्दोष पुरुषों को भी बर्बादी की कगार पर ला खड़ा किया है। किन्तु दुरुपयोग की संभावना मात्र से किसी भी कानून की आवश्यकता व उद्देश्य को नकार देना स्वयं अन्याय है।

जहाँ पुरुष पीड़ित हैं, उन्हें भी निष्पक्ष न्याय मिलना चाहिए।
उनकी भी व्यथा समाज को सुननी चाहिए।
किन्तु यह सत्य भी ध्यान रहे कि कुछ अपवादों के कारण सम्पूर्ण स्त्री समाज को अधिकार-विहीन कर देना किसी सभ्य राष्ट्र का लक्षण नहीं।

वास्तविक संकट पुरुष बनाम स्त्री के संघर्ष में नहीं है। संकट है — सामाजिक संतुलन के विघटन में।
जब तक हम यह स्वीकार नहीं करते कि स्त्री और पुरुष दोनों को समान सम्मान, समान संरक्षण और समान दायित्व मिलना चाहिए — तब तक हम न अपने समाज की रक्षा कर पाएँगे और न ही अपनी सांस्कृतिक धरोहर को अक्षुण्ण रख सकेंगे।

Monday, 9 June 2025

विवाह की वेदी या विश्वास की चिता?

 कभी बेटियों की विदाई पर मां-बाप की आंखें नम होती थीं। अब बेटों को विदा करते वक्त भी रूह कांपने लगी है। पहले सिर्फ बेटियाँ ससुराल जाती थीं, अब बेटों के साथ एक डर भी जाता है—कि क्या वो वापस लौटेगा? या फिर कंधों पर उसकी तस्वीर आएगी?

राजा रघुवंशी की शादी महज़ एक विवाह नहीं, हमारे समाज की आत्मा पर पड़ा वो तमाचा है जो आज भी गूंज रहा है। सात फेरे लिए थे उसने सोनम के साथ—लेकिन उसे क्या पता था कि यही फेरे उसके अंतिम संस्कार का क्रम बन जाएंगे। शादी के नौ दिन बाद राजा की लाश एक खाई में मिलती है। सिर पर धारदार हथियार के निशान थे, और पास ही पड़ी थी पत्नी सोनम की जैकेट।

शक हुआ, खोजबीन हुई, और फिर जो सामने आया—उसने भरोसे के ताबूत पर आख़िरी कील ठोक दी। राजा की पत्नी ने ही अपने प्रेमी और अन्य साथियों के साथ मिलकर उसकी हत्या कर दी। एक सुनियोजित षड्यंत्र, जिसे ‘हनीमून’ का नाम दिया गया था।

शादी, जिसे कभी दो आत्माओं का मिलन कहा जाता था, अब शक और खौफ़ का दूसरा नाम बनता जा रहा है। मुस्कान रस्तोगी द्वारा अपने पति साहिल की हत्या और अब सोनम द्वारा राजा की हत्या—क्या ये महज़ दो अपवाद हैं? या फिर समाज के भीतर पनप रही उस मानसिक बीमारी का लक्षण, जहां प्यार अब भावना नहीं, अपराध की भूमिका बन चुका है?

इस कहानी का सबसे भयानक पहलू यह है कि कातिल बाहर से नहीं आया। वो उसी घूंघट में छुपा था, जिसे हम आज भी श्रद्धा से पूजा करते हैं। जो रेशमी साड़ी किसी नवविवाहिता की पहचान होती थी, वही अब खून से रंगी हुई दिखने लगी है।

राजा जैसे लाखों युवा हैं जो प्यार, भरोसे और रिश्तों में विश्वास करते हैं। पढ़े-लिखे, समझदार, संस्कारी। लेकिन कई बार वे ऐसे छलावे का शिकार हो जाते हैं, जिसकी उन्हें भनक तक नहीं लगती। और सवाल यही है—क्या अब लड़कों को भी शादी से पहले "चरित्र प्रमाणपत्र" लेना होगा? क्या अब सिर्फ वर-कन्या की कुंडली नहीं, उनकी मानसिक स्थिरता और नैतिकता भी जांचनी होगी?

हमने आज़ादी की बात की —बेटियों को अपने फैसले लेने का अधिकार देने की। यह अधिकार बिल्कुल ज़रूरी है। लेकिन उस अधिकार की आड़ में अगर हत्या को भी 'मजबूरी' बताया जाए, तो समाज किस ओर जा रहा है?

जो लड़कियाँ अपने प्रेमी के लिए पति की हत्या कर रही हैं, उनसे भी सवाल है—क्या ये प्यार है? अगर हाँ, तो ये कैसा प्यार है जो अपनों का खून मांगता है?

यह कहानी केवल राजा की हत्या की नहीं है। यह उस विश्वास की हत्या है, जिसे हमने "शादी" कहा। यह उस माँ के सपनों की चिता है, जिसने सोचा था कि अब उसका बेटा घर बसा रहा है। यह उस भाई के विश्वास की राख है, जो भाभी को बहन मानने लगा था।

और यह सिर्फ राजा की कहानी नहीं। यह मुस्कान और साहिल की कहानी भी है। यह मेरठ के उस युवक की भी कहानी है जिसे ड्रम में भरकर ठिकाने लगा दिया गया। यह हम सबकी कहानी बनती जा रही है।

अब वक्त है कि हम सिर्फ बेटियों की सुरक्षा नहीं, बेटों की भी सुरक्षा की बात करें।

शादी अब सिर्फ एक सामाजिक रिवाज़ नहीं, एक संवेदनशील निर्णय है। एक ग़लत कदम एक ज़िंदगी ही नहीं, पूरा परिवार बर्बाद कर सकता है।

तो क्या अब हर ‘शुभ विवाह’ से पहले ये डर भी शामिल होगा कि कहीं ये विदाई आख़िरी तो नहीं?

सवाल वही है—और जवाब अब सिर्फ समाज को ही देना है।

जय माँ भारती🙏🏽

 

Friday, 6 June 2025

परमाणु हथियार और भूखे पेट का अंतर्द्वंद्व

 पाकिस्तान, जो अक्सर भारत को परमाणु हमले की धमकी देकर अपना ‘महाबली’ होने का भ्रम बुनता रहता है, असल में एक गहरे संकट में डूबा हुआ है — गरीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य के अभाव का। विश्व बैंक के ताजा आंकड़ों के अनुसार, इस मुल्क की आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है।


विश्व बैंक का 2018-19 का सर्वे साफ कहता है कि पाकिस्तान की लगभग 45 फीसदी आबादी महीने के तीन डॉलर की कमाई तक सीमित है। तीन डॉलर—इतनी छोटी रकम जिस पर बैठकर पाकिस्तान ‘परमाणु ताकत’ होने के नखरे करता है। जबकि उसका एक बड़ा तबका भूख से कराह रहा है, पोलियो जैसी बिमारी अब भी उसका साथी बनी हुई है।

इसी बीच, जब दुनिया पोलियो को भूतकाल की बीमारी मान चुकी है, पाकिस्तान में बीते डेढ़ सालों में 81 पोलियो के मामले सामने आए हैं। इसे समझने की कोशिश करें — विश्व की नजर में यह देश ‘खतरनाक’ हथियारों का धनी है, लेकिन पोलियो जैसे मूलभूत स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है।

गरीबी में अचानक हुई बढ़ोतरी भी कोई चमत्कार नहीं, बल्कि इंटरनेशनल पॉवर्टी लाइन के मानक में बदलाव का नतीजा है। 2.15 डॉलर से बढ़कर तीन डॉलर प्रति दिन की आय के आधार पर अब पाकिस्तान में अति निर्धनों की संख्या 4.9 फीसदी से बढ़कर 16.5 फीसदी हो गई है। यह आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं, बल्कि उस देश की विफलता का आईना है, जो अपनी अर्थव्यवस्था को स्थिर विकास नहीं दे पा रहा।

पाकिस्तान की सरकारें और सेना जहां बड़ी-बड़ी धमकियाँ देकर अपनी छवि चमकाने में लगी हैं, वहीं उनका बड़ा तबका गरीबी, बीमारी और अशिक्षा के गर्त में फंसा है। क्या यही ‘परमाणु ताकत’ की असली कीमत है? जब अमीरी और गरीबी के बीच की खाई दिन-ब-दिन गहरी होती जा रही हो, तब बड़े-बड़े युद्ध के नारे और धमकियाँ खोखली आवाज़ें साबित होती हैं।

तो अगली बार जब कोई पाकिस्तान की परमाणु धमकी सुने, तो समझिए कि उसके लिए सबसे बड़ा खतरा उसकी खुद की गरीबी और बुनियादी जरूरतों की कमी है — एक ऐसा ‘परमाणु विस्फोट’ जो उसके अस्तित्व को अंदर से खा रहा है, और जिसे कोई न रोक पा रहा है, न छिपा पा रहा है।

पाकिस्तान की यह त्रासदी नहीं, बल्कि उसकी सबसे बड़ी विडंबना है — जहाँ धमकियों के बीच एक भूखा आदमी अपने बच्चों के लिए खाना जुटाने में असफल रहता है।

Thursday, 5 June 2025

संवेदना का पतन और लाशों की निरर्थकता

 जय माँ भारती,

मैं यह पत्र उस पीड़ा से लिख रहा हूँ, जिसे अब मौन रखना स्वयं एक अपराध प्रतीत होने लगा है। मैं यह पत्र किसी क्रोधवश नहीं, बल्कि उस क्षुब्ध अन्तःकरण से लिख रहा हूँ, जो बारम्बार यह देख रहा है कि इस देश में एक सामान्य नागरिक का जीवन दिन-ब-दिन तुच्छ होता जा रहा है — इतना तुच्छ कि उसके मरने पर न शोक गहराता है, न व्यवस्था विचलित होती है।


बेंगलुरु की हालिया घटना कोई अकस्मात या प्राकृतिक विपदा नहीं थी। वह एक नृशंस, पूर्वानुमेय तथा स्पष्ट रूप से टाली जा सकने वाली प्रशासनिक लापरवाही थी। जब पुलिस विभाग स्वयं पूर्व में यह उद्घोष कर चुका था कि ऐसे विशाल जनसमूह के साथ विजय-जुलूस का आयोजन न किया जाए, तब भी यह आयोजन हुआ — और उसका परिणाम हुआ 11 जीवनों का अनाहूत अंत। इन मृतकों में कोई उच्चपदस्थ जन न था, न कोई प्रभावशाली नाम। वे सब हमारे जैसे — सामान्य जन थे। और संभवतः यही उनकी सबसे बड़ी कमी बन गई।

जिस राष्ट्र में मृत्यु केवल एक ट्वीट, कुछ इमोजी और औपचारिक शोक-संदेशों तक सीमित हो जाए — वहाँ यह पूछना अनिवार्य हो जाता है कि "क्या हमारा समाज अब मृत्यु की भी अभ्यस्त हो चुका है?"

यदि क्रिकेट का उत्सव एक जीवन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाए, यदि एक ट्रॉफी की प्रसन्नता मृत देहों पर भारी पड़ने लगे, तो यह मात्र एक सामाजिक संकट नहीं, अपितु नैतिक पतन की पराकाष्ठा है।

मेरा प्रश्न यह नहीं कि यह दुर्घटना कैसे हुई — मेरा प्रश्न है कि इसे रोका क्यों नहीं गया?

यदि पुलिस को पूर्व से इसकी संभावना ज्ञात थी, तो क्या प्रशासन अंध था? आयोजकों को यह विवेक क्यों नहीं हुआ कि तीन लाख जनों को एकत्रित करना, वह भी बिना समुचित सुरक्षा व अनुमति के, केवल अराजकता को आमंत्रण देना है?

और जब किसी ने इस पर प्रश्न उठाया, तो उसे उपहास और आक्रोश का पात्र बना दिया गया। जैसे प्रश्न पूछना इस राष्ट्र में अब असभ्यता का प्रतीक हो गया हो।

क्या यह सत्य नहीं है कि जब तक पीड़ित आपके स्वयं के परिवार का सदस्य न हो, तब तक उसकी पीड़ा केवल एक संख्या होती है?
क्या ₹1 लाख की क्षतिपूर्ति किसी 20 वर्षीय युवक के जीवन का मूल्य हो सकती है?

हम भूल जाते हैं कि जिनके लिए हम झण्डे लहराते हैं — नेता, अभिनेता, खिलाड़ी — उनके लिए हम केवल भीड़ हैं। हमारी मृत्यु उनके लिए समाचार है। हमारा अंत उनके लिए एक वक्तव्य है।

यह मौन अब और अधिक सह्य नहीं।

यह असहायता अब क्रोध नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व की मांग करती है।

मैं यह पत्र किसी विशेष दल, समूह या संस्था के विरोध में नहीं लिख रहा, वरन् उन सभी के प्रति असहमति प्रकट करता हूँ जिन्होंने जन-जीवन की क्षुद्रता को ‘प्रोटोकॉल’ और ‘नियमावली’ में समाहित कर दिया है।

यदि आज हम नहीं बोले, तो कल यह मृत्यु हमारे आँगन की होगी। तब क्या हम भी यही कहेंगे — "दुर्भाग्य"?

इसलिए मैं पूछता हूँ:

"क्या मेरे देश में मेरी जान से भी बड़ी कोई ट्रॉफी हो सकती है?"

आप सब से विनम्र निवेदन है — इस प्रश्न का उत्तर स्वयं को दीजिए।
यदि आत्मा में कंपन हो, तो जानिए — आप अब भी जीवित हैं।

सादर,
आदित्य तिक्कू।।

Wednesday, 4 June 2025

दीवार के उस पार मौत थी

आरसीबी निजी थी, लाशें सार्वजनिक हो गईं

 4 जून 2025 — बेंगलुरु का चिन्नास्वामी स्टेडियम। एक दीवार के इस पार तालियों की गड़गड़ाहट थी, सेल्फ़ी की मुस्कानें थीं, और ट्रॉफी के इर्द-गिर्द उमड़ता हुआ एक आत्ममुग्ध जश्न। वहीं उसी दीवार के उस पार — हां, बिल्कुल उसी समय — रौंदे जा रहे थे लोग, चीखें गूंज रही थीं, जीवन दम तोड़ रहे थे। 11 भारतीय नागरिकों की मृत्यु हुई, 30 से अधिक घायल हुए। लेकिन जश्न नहीं रुका। ट्रॉफी फिर भी उठाई गई। सरकार फिर भी मुस्कुरा रही थी। और हम... हम जैसे शेष समाज, केवल देख रहे थे।


इस पर सबसे पहला प्रश्न यही उठता है — क्या यह कोई राष्ट्र की जीत थी? क्या यह कोई सैन्य विजय थी? नहीं। यह जीत थी एक निजी फ्रेंचाइज़ी की। एक प्राइवेट कंपनी की टीम की। जिसमें आधे खिलाड़ी विदेशी हैं, कप्तान मध्यप्रदेश का है, मुख्य चेहरा दिल्ली से है। और जिस राज्य की सरकार — कर्नाटक सरकार — इसे अपना "गर्व" घोषित कर रही थी, उस टीम में कर्नाटक का केवल एक प्रमुख खिलाड़ी था।

तो क्या केवल नाम “बेंगलुरु” होने से यह सरकार की उपलब्धि बन जाती है? क्या किसी निजी संस्था की व्यापारिक सफलता को प्रदेश की सांस्कृतिक विजय में परिवर्तित कर देना ही राजनीति की नई परिभाषा बन चुकी है?

माना कि यह राजनीतिक लाभ का अवसर था। स्वीकार है कि जनभावनाओं से जुड़कर लोकप्रियता पाना लोकतंत्र का एक हिस्सा होता है। किंतु जनभावनाओं को भुनाने की सीमा होती है। जब वह सीमा 11 लोगों की मृत देह को लांघ जाए, तब वह राजनीति नहीं, पाप बन जाती है।

जो फैंस उस दिन उमड़े थे, वे वोट बैंक नहीं थे। वे किसी की भीड़ नहीं, नागरिक थे — जिम्मेदारी से सुरक्षित किए जाने योग्य। लेकिन दुर्भाग्य यह कि प्रशासन भीड़ तो चाहता था, उसकी सुरक्षा नहीं। सरकार जश्न तो चाहती थी, संवेदना नहीं।

क्या एक सभ्य समाज में यह स्वीकार्य है कि हादसे के समय जश्न जारी रहे? क्या किसी भी प्रदेश की नैतिक चेतना इस हद तक सो चुकी है कि वह खून से सनी ट्रॉफी को भी "गौरव" बताने लगे?

यह कोई दुर्घटना नहीं थी, यह योजनागत उपेक्षा थी।
यह कोई चूक नहीं थी, यह प्रशासनिक दंभ था।
यह कोई विफलता नहीं थी, यह सत्ता की संवेदनहीन सफलता थी।

जब कोई सरकार किसी निजी टीम की जीत को “राजकीय विजय” की तरह प्रस्तुत करती है, तब वह जनता के विवेक का अपमान करती है। और जब उसी सरकार की विफलता से 11 लोगों की जान जाती है, और फिर भी जश्न नहीं रुकता — तब वह शासन नहीं, अपराध है।

आज हमें यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए — यह केवल भगदड़ नहीं थी, यह व्यवस्था की सार्वजनिक हत्या थी। और जब तक हम इस सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक अगली ट्रॉफी के नीचे फिर कोई शव मिलेगा, अगली जयकार के पीछे फिर कोई चीख दबेगी।

समाज के जाग्रत नागरिकों, अब मौन रहना अपराध है। प्रश्न उठाइए। व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कीजिए। क्योंकि किसी भी ट्रॉफी की कीमत इतनी नहीं हो सकती कि उसके नीचे 11 लोगों की लाशें छिप जाएं।