कल भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट का तमाशा है। वही पाकिस्तान जिसने हमारी धरती पर गोलियाँ बरसाईं, हमारे सैनिकों को शहादत की आग में झोंका, और हर बार पीठ में खंजर घोंपा। और हम? हम उनके साथ खेलेंगे। चौकों-छक्कों पर झूमेंगे। विज्ञापनों से पैसा कमाएँगे। खुद को खेल-प्रेमी बताकर चैन की नींद सोएंगे। यह कैसी विडंबना है—शहीदों की चिताएँ अभी भी धधक रही हैं, और हम दुश्मन के साथ बल्ला घुमा रहे हैं।
कहते हैं—“स्पोर्ट्स मस्ट गो ऑन।” लेकिन सवाल यह है—क्या खेल देश से बड़ा है? क्या क्रिकेट का कारोबार शहीदों के लहू से ऊपर है? यह कैसी आत्मवंचना है कि ट्विटर पर हैशटैग चलाकर, प्रोफ़ाइल फोटो बदलकर, काली पट्टी बाँधकर हम अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ लेते हैं और अगली ही घड़ी टीवी स्क्रीन से चिपक जाते हैं। बिरयानी और हलवे के बीच देशभक्ति का स्वाद कब तक खोजा जाएगा?
शहीद परिवार की आँखों से पूछिए। तिरंगे में लिपटे बेटे को विदा करने वाली माँ को क्या फर्क पड़ता है कि सूर्यकुमार ने कितने रन बनाए, या गेंदबाज़ ने कितनी विकेट लीं? उस विधवा से पूछिए जिसकी माँग से सिंदूर मिटा दिया गया—क्या पाकिस्तान पर क्रिकेट की जीत उसका दर्द कम कर सकती है? नहीं। उनके लिए यह खेल तमाचा है। हर चौका, हर छक्का उनके बलिदान पर तिरस्कार है, क्योंकि इसमें उनका क़र्ज़ भूलकर दुश्मन को गले लगाया जाता है।
सच यही है—कल देशभक्ति छुट्टी पर होगी। मैदान में बल्ला गूँजेगा। स्टेडियम में तालियाँ बजेंगी। टीवी पर विज्ञापन चमकेंगे और करोड़ों रुपये बरसेंगे। लेकिन कहीं कोई माँ अपने बेटे की तस्वीर देखकर रोएगी, कहीं कोई बच्चा अपने पिता की वर्दी के बिना सोएगा। और हम उस दर्द को अनदेखा करके दुश्मन के साथ खेलेंगे—जैसे कुछ हुआ ही न हो।
देशभक्ति ट्वीट की मोमबत्ती नहीं है जो तीन महीने में बुझ जाए। यह त्याग और तपस्या की आग है, जिसे हर पल जलाए रखना पड़ता है। क्रिकेट का यह कारोबार उस आग पर राख डालने का काम करता है। असली सवाल यही है—हम दुश्मन के साथ खेलकर किसे धोखा दे रहे हैं? पाकिस्तान को? नहीं। खुद को।
कल की जीत या हार स्कोरबोर्ड पर नहीं, हमारे विवेक पर दर्ज होगी। और इतिहास पूछेगा—उस दिन देशभक्ति मैदान में थी या छुट्टी पर?
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