Friday, 19 December 2025

भीख और आर्थिक निर्भरता: पाकिस्तान का दर्पण

 सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से लगातार सामने आ रही ख़बरें केवल प्रवासी नियमों के उल्लंघन की सूचना नहीं हैं, बल्कि वे पाकिस्तान के राज्य-चरित्र पर लगे एक गहरे प्रश्नचिह्न की तरह हैं। खाड़ी देशों में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी नागरिकों का भीख माँगते या आपराधिक गतिविधियों में लिप्त पाया जाना कोई आकस्मिक सामाजिक विचलन नहीं है, बल्कि वर्षों से सड़ते चले आ रहे आर्थिक, राजनीतिक और नैतिक ढाँचे का स्वाभाविक परिणाम है। यह वही परिणाम है, जिसे समय रहते यदि राज्य ने देखा होता, तो आज अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ऐसी शर्मनाक चेतावनियाँ सुनने की नौबत न आती।


विडंबना यह है कि जिस देश के नागरिक आज विदेशों में हाथ फैलाते दिखाई दे रहे हैं, उसी देश की सरकारें दशकों से अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के सामने कटोरा लेकर खड़ी रही हैं। आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक, सऊदी अरब और चीन—हर दरवाज़े पर पाकिस्तान की आर्थिक नीति ने आत्मनिर्भरता की नहीं, बल्कि स्थायी याचना की भाषा बोली है। सत्ता बदली, चेहरे बदले, नारे बदले, पर अर्थव्यवस्था का मूल स्वभाव नहीं बदला। हर सरकार ने यह दावा किया कि वह कटोरा तोड़ देगी, लेकिन व्यवहार में केवल उसका रंग बदला गया और उसे कभी ‘लोन’, कभी ‘बेलआउट’ तो कभी ‘डिपॉज़िट’ का सम्मानजनक नाम दे दिया गया।

जब राज्य स्वयं अपने अस्तित्व के लिए बार-बार बाहरी सहायता पर निर्भर हो, तब समाज के निचले पायदान पर खड़ा नागरिक आत्मसम्मान की कौन-सी पाठशाला से निकलेगा? खाड़ी देशों में पहुँचे ये भिखारी केवल व्यक्तिगत विफलता की कहानी नहीं हैं, वे उस सामूहिक मानसिकता का प्रतिबिंब हैं जिसे वर्षों से यह सिखाया गया कि देश में मेहनत से नहीं, सिफ़ारिश, जुगाड़ या पलायन से ही जीवन चल सकता है। यह मानना भोलेपन के अतिरिक्त कुछ नहीं कि सख़्त वीज़ा प्रक्रियाओं के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में लोग वहाँ यूँ ही पहुँच गए। इसके पीछे एक सुनियोजित तंत्र, एक संगठित माफिया और एक मौन राज्य-संरक्षण की बू स्पष्ट दिखाई देती है।

देश के भीतर भी दृश्य अलग नहीं है। साफ़ पीने का पानी तक खरीदने को विवश नागरिक, बेरोज़गारी से त्रस्त युवा, अपर्याप्त वेतन पर जीवन ढोते कर्मचारी और घर बचाने के लिए संपत्ति बेचते परिवार—ये सभी उस आर्थिक पतन के संकेत हैं जिसे लंबे समय तक राजनीतिक नारों से ढका गया। जब जीवन यापन स्वयं संघर्ष बन जाए, तब अपराध और भीख नैतिक पतन नहीं, बल्कि मजबूरी के औज़ार बन जाते हैं। यही कारण है कि भीख के साथ-साथ चोरी, ऑनलाइन फ्रॉड और आर्थिक अपराधों की प्रवृत्ति भी तेज़ी से बढ़ी है, देश के भीतर भी और बाहर भी।

सऊदी अरब और यूएई की चेतावनियों को किसी साज़िश के चश्मे से देखना आत्म-प्रवंचना होगी। ये चेतावनियाँ दरअसल उस आईने की तरह हैं, जिसमें पाकिस्तान को अपना वास्तविक चेहरा देखने का अवसर मिला है। दुर्भाग्य यह है कि कुछ संगठित गिरोहों और असफल नीतियों की कीमत अब पूरे राष्ट्र को चुकानी पड़ रही है। यदि वीज़ा दरवाज़े बंद होते हैं, तो उसका दुष्प्रभाव उन लाखों ईमानदार पाकिस्तानियों पर पड़ेगा, जिनका इन गतिविधियों से कोई लेना-देना नहीं है।

इस संकट से निकलने का मार्ग बाहर नहीं, भीतर है। जब तक राज्य स्वयं भीख की मानसिकता से मुक्त नहीं होगा, तब तक नागरिकों से आत्मसम्मान की अपेक्षा करना छल होगा। कटोरा केवल नागरिकों के हाथ से नहीं, सबसे पहले सत्ता के हाथ से गिराना होगा। आर्थिक आत्मनिर्भरता, जवाबदेह शासन और गरिमापूर्ण रोज़गार के बिना यह विडंबना और गहराती जाएगी—और इतिहास दर्ज करेगा कि जिस देश की सरकारें दुनिया से माँगती रहीं, उसी देश के नागरिक पूरी दुनिया में माँगते फिरते रहे।

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