Saturday, 15 October 2011

दस के चार

अहा.. एक और नई सुबह एक और नया दिन। एक और नया दिन संघर्ष के लिए बुलाता हुआ। मैं तैयार नहीं था शारीरिक तौर पर। मानसिक रूप से तो मैं कल रात से ही तैयार था। मेरा शरीर टूट रहा था। दिमाग दर्द फटा जा रहा था। बस एक ही शक्ति थी जो मुझे प्रेरित कर रही थी, वो थी राकेश की पढ़ाई। शायद इसलिए ही लोग ऊपर वाले की ताकत पर यकीन करते हैं कि वो निढाल शरीर से भी काम करवा सकता है। भविष्य का सपना दिखाके। यही सोचते हुए कि राकेश का ये आखिरी साल है, फिर आराम से उम्र कट जाएगी, जो बची हुई है। मैं अपना एकमात्र प्रिय बैग कंधे पर डालकर लोकल ट्रेन में चढ़ गया। और 10 रुपए में चार बॉलपेन बेचना शुरू कर दिया। इसमें ज्यादा कमाई तो नहीं थी पर गुजारा चल जाता था। इतने सालों से ट्रेन में बेचता आ रहा हूं कि कई तो हर तनख्वाह पर मुझसे ही पेन खरीदते थे। उनमें से कई लोग मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, क्योंकि उनको मैंने अपनी आंखों के सामने बढ़ते देखा है। स्कूल से कॉलेज और अब ऑफिस उसी लोकल ट्रेन में। पर कई बार बड़ा दुखी होता था, जब बच्चे कई बार अपने आपको और माता-पिता को कोसते थे। कभी पूछो तो भरी हुई आवाज से कहते थे कि हमें पढ़ाया ही क्यों? हमें बचपन से कोई काम क्यों नहीं सिखाया। कम से कम सपने तो दफन हो जाते बचपन में और एक मंत्रमुग्ध करने वाली मुस्कान दे देते। मुझे गुस्सा आता पर मैं व्यक्त करता। कहीं मेरे हाथ से बंधे हुए ग्राहक न चले जाएं, क्योंकि हर (स्वार्थी) इंसान की तरह मुझे अपने जीवन से ज्यादा अपने ग्राहक प्यारे थे। और जो भी हो उनका अपना मामला है, मुझसे तो अच्छे से ही बात करते हैं। 10 रुपए के चार पेन .. 10 रुपए के चार पेन .. 10 रुपए के चार पेन … बोलते-बोलते रात की आखिरी लोकल ट्रेन से मैं आ गया कोलीवाड़ा। यही मेरी 10 बाय 10 की खोली है। हम सात दोस्त इसमें रहते हैं। बाहर के लोगों के लिए छोटी हो सकती है। पर हमारे लिए नहीं। यहां पर सात लोगों के सात परिवारों के सात सपने रहते हैं। जिसे खाली पेट में भी खोली बड़ी हसीन नजर आती है। बस यही अफसोस है 35 सालों में भी ये खोली घर नहीं बन पाई, क्योंकि हममें से कोई अपने परिवार के साथ नहीं रहता। मैं तकरीबन 15 साल का था, जब नौकरी करने बॉम्बे आया था। क्योंकि तब हमारे गांवों में काम नहीं था और आज भी। सच कहूं तो मैं यहां पर साहब बाबू बनने आया था, पर जब यहां आया तो पता चला कि 10वीं पास यहां चपरासी भी नहीं बन सकता। इसलिए मैं अपने लाल (राकेश) को कॉलेज करवा रहा हूं, वो भी बीएससी। जी हां बीएससी मैंने राकेश को आखिरी बार जब देखा था तो मात्र तीन महीने का था। उसके बाद मौका ही नहीं मिला। पैसे जोड़ते-जोड़ते आज वो बीएससी के आखिरी साल में आ गया। लेकिन ऐसा नहीं है कि मैं उसे नहीं जानता। वो लगातार खत भेजता रहता है और बताता रहता है कि हर दिन वो बड़ा हो रहा है और अम्मा बूढ़ी। चलिए यह बात यहीं खतम करता हूं, आंख में कुछ गिर गया है।
एक साल बाद-एकदम से ट्रेन रुकी और मेरा बेटा उतरा। आते ही उसने मेरे पैर छुए। और मुझ मूर्ख को समझ ही नहीं आया कि क्या करूं। मैं स्तब्ध खड़ा रहा। तीन महीने बच्चे से युवा का सफर कैसे निकल गया। और मैं देख भी न पाया। फिर दूसरे ही दिन से राकेश नौकरी ढूंढऩे लग गया। उसे मिलेगी। जरूर मिलेगी। क्योंकि नहीं मिलेगी। आखिर उसने बीएससी पास की है। बिल्कुल मिलनी चाहिए। वो थोड़ा परेशान रहने लगा है, मैं नहीं। मुझे यकीन है कि उसे नौकरी मिलेगी। मैं बिल्कुल भी चिंतित नहीं हूं। आज नहीं तो कल तो अवश्य ही उसे नौकरी मिल जाएगी। आखिर इतने सालों का संघर्ष हमारा व्यर्थ थोड़े ही जाएगा व ऊपर वाले के यहां देर है अंधेर थोड़े ही है। वह हमारे लिए भी कुछ करेगा। लेकिन अब कर ही दे। आंखों में मोतियाबिंद हो गया है। आंखें पूरी सफेद हों उससे पहले राकेश की नौकरी तो देख लूं। दिन से महीने हो गए हैं अब तो मुंबा देवी नौकरी तो दिला दें ये प्रार्थना कर सोच ही रहा था कि एक आवाज आई। बेहतरीन ऑफर, लाजवाब ऑफर। मुंबई में पहली बार 10 रुपए के पांच पेन। जी हां 10 के पांच पेन। एक बार लीजिए और पांच साल तक लिखिए। उस सख्श की आवाज में जोश था। जो शुरू में मेरी आवाज में हुआ करता था। मेरी अंदर जिज्ञासा जागृत हुई कि ये सख्श कौन है। भीड़ में से दूसरी तरफ देखा तो राकेश खड़ा पेन बेच रहा था। एकदम से चक्कर आया मैं और हमारे सपने कट गये….

चित्र www.google.com से लिया गया है।

2 comments:

  1. युवा सपनों का कडुआ सच....
    मार्मिक/बेधक कथा..
    सादर....

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  2. हकीकत का आइना पोस्ट..... बहुत बढ़िया

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