Sunday, 25 May 2025

तेज प्रताप की कहानी में गुम दो औरतों की आवाज़

 राजनीति सिर्फ सत्ता का खेल नहीं होती — यह लोगों की भावनाओं, रिश्तों, और जीवन की सबसे निजी परतों तक में दाख़िल हो जाती है। तेज प्रताप यादव की कहानी, चाहे आप इसे प्रेम गाथा कहें या पारिवारिक विद्रोह, दरअसल उसी राजनीति की एक त्रासद तस्वीर है, जहाँ न कोई पूरी तरह मासूम है, और न ही कोई पूरी तरह दोषी।

प्यार था, तो फिर विवाह क्यों?

तेज प्रताप कहते हैं कि उन्हें 'मोहब्बत' थी — एक ऐसी भावना जिससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता। पर अगर यह मोहब्बत इतनी सच्ची थी, तो विवाह का निर्णय क्यों लिया गया? और अगर विवाह कर लिया था, तो फिर उसे पूरी ईमानदारी से निभाया क्यों नहीं गया?

क्या यह सवाल हम सबके ज़ेहन में नहीं उठना चाहिए? क्या तेज प्रताप ने विवाह को केवल एक पारिवारिक औपचारिकता मानकर निभाया, बिना यह समझे कि इसमें केवल दो नाम नहीं, बल्कि दो ज़िंदगियाँ, दो आत्माएँ जुड़ती हैं? एक लड़की जिसे उन्होंने अपना जीवनसाथी बनाया — क्या वह सिर्फ एक ‘राजनीतिक मोहरा’ बनकर रह गई?

दो लड़कियाँ — और टूटी उम्मीदें

तेज प्रताप के फैसलों के बीच दो महिलाओं की ज़िंदगियाँ ऐसी उलझीं कि अब शायद कोई सुलझाव मुमकिन नहीं। एक वह पत्नी, जिससे उन्होंने विवाह किया पर फिर उस रिश्ते से मुँह मोड़ लिया; दूसरी वह युवती, जिससे वे कहते हैं कि उन्हें प्रेम था, पर जिसे कभी सामाजिक मान्यता नहीं मिल सकी।

क्या इन दोनों महिलाओं के साथ न्याय हुआ? या फिर वे केवल तेज प्रताप की कहानी का ‘साइड कैरेक्टर’ बनकर रह गईं, जिनकी भावनाएँ, सम्मान और जीवन की स्थिरता सब कुछ कुर्बान कर दी गई, सिर्फ इसलिए क्योंकि एक पुरुष अपनी भावनात्मक और पारिवारिक उलझनों से जूझ रहा था?

समाज — तेज प्रताप का रक्षक, और औरतों का मौन दर्शक?

हमारा समाज भी कम दिलचस्प किरदार नहीं है इस कहानी में। तेज प्रताप की हर बात पर सहानुभूति, हर आँसू पर संवेदना, और हर ‘प्रेम स्वीकृति’ पर तालियाँ... लेकिन क्या हमने कभी इन दो महिलाओं की आँखों में झाँकने की कोशिश की?

क्या हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि शादी टूटना सिर्फ कोर्ट केस नहीं, एक स्त्री की आत्मा के चिथड़े-चिथड़े हो जाने जैसा होता है? क्या मोहब्बत अधूरी रह जाना सिर्फ एक ‘इमोशनल फुटनोट’ नहीं, बल्कि कई वर्षों की मानसिक यातना बन जाता है?

राजनीति का पर्दा — जहाँ हर कोई अपनी भूमिका निभा रहा है

इस पूरे प्रकरण में सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि कोई भी पूरी तरह निर्दोष नहीं दिखता। तेज प्रताप, परिवार, विरोधी दल, मीडिया — सबने इस कहानी में अपनी-अपनी स्क्रिप्ट के अनुसार अभिनय किया है। भावनाओं को राजनीति में भुनाया गया, व्यक्तिगत पीड़ा को पब्लिक सिम्पैथी में बदला गया, और सच्चे सवालों को मीडिया की हेडलाइन में दबा दिया गया।

और अंत में...

यह सिर्फ तेज प्रताप यादव की निजी कहानी नहीं है — यह हमारे पूरे सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने पर एक बड़ा सवाल है। क्या हम रिश्तों को इतनी आसानी से राजनीति की बलि चढ़ा सकते हैं? क्या हम समाज के रूप में इतनी सहानुभूति केवल पुरुष के लिए रखेंगे, और स्त्रियों को केवल ‘त्याग की मूर्ति’ बनाकर भूल जाएँगे?

यह कहानी एक प्रेम त्रिकोण नहीं, बल्कि समाज, राजनीति और व्यक्तिगत स्वार्थ के उस तिकोन की कहानी है, जहाँ हर कोना चुभता है — और सबसे ज्यादा चोट उन्हें लगती है, जो सबसे कम बोलते हैं।

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