Wednesday, 26 November 2025

जब इतिहास झुका और आस्था विजयी हुई: अयोध्याजी का महाकालिक क्षण

 अयोध्याजी में बीते उस क्षण को शब्दों में पिरोना आसान नहीं। उस समय की अनुभूति इतनी गहन थी कि मैं लिख ही नहीं सका—मन भर आया था, गला रुँध गया था और भावनाएँ इस कदर उमड़ीं कि कलम भी ठहर गई। आज, थोड़ा सँभलकर, उस अलौकिक पल को शब्द देने का प्रयास कर रहा हूँ।


अयोध्याजी की पावन धरा पर जो दृश्य उतरा, वह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं था—वह पाँच सौ वर्षों की वेदना, संघर्ष, अपमान और बलिदान का प्रतिफल था। वह क्षण उस इतिहास का समाधान था जिसे विदेशी आक्रांताओं की तलवारों ने लिखा था, और जिसे भारतीय समाज ने पीढ़ियों तक अपने हृदय में एक जलते हुए अंगारे की तरह सँजोया था।

यह वह क्षण था जहाँ आँसू भी थे और आकाश भी।
जहाँ स्मृति भी थी और संकल्प भी।
जहाँ अतीत रो रहा था और भविष्य खड़ा होकर प्रण ले रहा था।

पाँच सदियों का सूखा और वह क्षणभंगुर वर्षा

पाँच सौ वर्षों की अवधि कोई छोटी नहीं होती।
यह वह काल था जिसमें—

  • मंदिर टूटा, पर आस्था नहीं टूटी।
  • केंद्र गिरा, पर केंद्र का अर्थ जीवित रहा।
  • शिलाएँ बिखरीं, पर स्मृति अक्षत रही।

कितने ही संतों ने अपने प्राण अर्पित किए, कितने कारसेवकों ने गोलियाँ खाईं, कितने परिवार अपने बच्चों को खोकर भी रामनाम की लौ बुझने नहीं दी।
उनके त्याग, दर्द और धैर्य ने जो इतिहास रचा, उसी का जागरण उस दिन अयोध्याजी में दिखाई दिया।

वह दृश्य ऐसा था जैसे पाँच सदियों का सूखा अचानक पिघलकर वर्षा बन गया हो—दुगुने वेग से, दुगुने उजास से।

अयोध्याजी उस दिन केवल नगर नहीं थी—वह चेतना बन गई थी

दीपों की अनगिनत पंक्तियाँ
मानो किसी स्वर्गीय भू-सज्जा का आकार ले चुकी थीं।

हर दीप ऐसा लगता था जैसे किसी कारसेवक की आँख बोल रही हो—
“देखो, हमने तुम्हारे लिए तमाम दुष्टता झेली,
पर हार नहीं मानी।
आज हमारी देह नहीं, पर हमारी तपस्या तुम्हारे सामने जगमगा रही है।”

हवा में उठते मंत्र नहीं,
स्वयं युगों की पुकार थी।

वहाँ उपस्थित हर आत्मा चाहे जो भी विचार रखती हो—
उस क्षण वह स्वयं से बड़ी किसी शक्ति का अंग बन गई थी।
लोगों की आँखें उसी मौन संवाद को पढ़ रही थीं जिसे केवल इतिहास की अनुभूति ही समझा सकती है।

राम का लौटना केवल मंदिर की घटना नहीं—भारतीय आत्मा की पूर्णता है

राम किसी मूर्ति, किसी दीवार, किसी धातु या किसी संरचना का नाम नहीं हैं।
राम वह नैतिक-आध्यात्मिक आदर्श हैं जो इस भूमि की रगों में बहते हैं।

और जब पाँच सौ वर्षों के बाद
राम अयोध्याजी में पुनः प्रतिष्ठित हुए—
तो केवल देवालय नहीं लौटा,
भारतीय आत्मा का स्वर लौटा।

राम का लौटना
समय की पराजय पर सत्य की विजय थी।
राम का लौटना
आक्रांताओं पर अखंड संस्कृति का वर्चस्व था।
राम का लौटना
पीढ़ियों के तप और बलिदान की नैतिक मान्यता थी।

वह क्षण भारतीय समाज को एक सूत्र में बाँध गया

जब वह दृश्य सामने आया, तो यह बात स्पष्ट हो गई—
भारत कई विचारों का देश हो सकता है,
पर उसकी आत्मा एक ही है—राम।

उस क्षण कोई भी व्यक्ति पुराना भारतीय नहीं रहा,
वह नया भारतीय बन गया—
जो अपने इतिहास को जानता भी है और उसे पुनः लिखने का साहस भी रखता है।

वहाँ कोई विजेता नहीं,
कोई पराजित नहीं—
वहाँ केवल सम्पूर्ण भारत था,
जिसका हृदय एक साथ धड़क रहा था।

आज कलम थमी नहीं—इतिहास स्वयं लिखवा रहा है

आज जब मैं लिख पा रहा हूँ,
तो यह मेरे शब्द नहीं—
समय के कंधों पर रखा गया वह उत्तरदायित्व है
कि इस क्षण को इतना सजीव लिखा जाए
कि सौ वर्ष बाद पढ़ने वाला भी उसी भाव-सागर में डूब जाए
जिसमें हम कल डूबे थे।

क्योंकि अयोध्याजी का यह क्षण केवल हमारे लिए नहीं,
आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रकाशस्तंभ है।

यह वह क्षण है जो कहता है:

“आस्था पर आक्रमण हो सकता है,
पर आस्था पराजित नहीं होती।
सत्य देर से लौट सकता है,
पर जब लौटता है, तो शताब्दियों को रोशन करके लौटता है।”

Monday, 3 November 2025

स्वप्न से स्वर्ण तक — भारत की बेटियों का महागौरव

 "At the stroke of the midnight hour, when the world sleeps, India will awake to life and freedom."

पंडित जवाहरलाल नेहरू के इन अमर शब्दों से अपनी बात प्रारंभ करता हूँ — क्योंकि  2 नवंबर 2025 की आधी रात, जब नवी मुंबई के आकाश में तिरंगा लहरा रहा था, तब सचमुच भारत फिर एक बार जीवन और स्वतंत्रता के नए अर्थ के साथ जाग उठा था।


वह सिर्फ़ कप जीत की खुशी नहीं थी — वह भारत माता की उन असंख्य बेटियों का सिर ऊँचा करने का क्षण था, जिनसे सदियों से कहा जाता रहा — “यह तुम्हारे बस की बात नहीं।”
मगर उस रात मैदान में खड़ी हरमनप्रीत, स्मृति, शेफाली, दीप्ति, अमनजोत और उनकी समूची टोली ने इस वाक्य को इतिहास बना दिया। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि सीमाएँ केवल मैदान की नहीं होतीं, वे सोच की भी होती हैं — और भारतीय नारी ने अब सोच की हर सीमा तोड़ दी है।

यह जीत गेंद और बल्ले की नहीं, आत्मा और साहस की विजय है।
यह उस माँ की आँखों की चमक है, जो अब अपनी बेटी से कह सकेगी — “हाँ, तुम कर सकती हो।”
यह उस पिता के विश्वास की लौ है, जो अब संदेह में नहीं, गर्व में जियेगा।

आज से यह देश अपनी बेटियों को सिर्फ़ फूलों में नहीं, फौलाद में भी देखेगा।
अब कोई बेटी “लड़का होकर ही” नहीं, बल्कि “लड़की होकर भी” मैदान में उतरेगी और तिरंगे को ऊँचा उठाएगी।

पहले जो लोग महिला क्रिकेटरों को उनके चेहरे या “वायरल रील” से पहचानते थे, अब उन्हें उनके कवर ड्राइव, यॉर्कर और रनआउट्स से पहचानेंगे।
अब “नेशनल क्रश” शब्द किसी चेहरे से नहीं, बल्कि कप्तान के जुनून और ऑलराउंडर के साहस से जुड़ा होगा।

जिस तरह 1983 में कपिल देव की टीम ने भारत को विश्व क्रिकेट का विजेता बनाया था, उसी तरह 2025 में हरमनप्रीत कौर की यह वीरांगना-सेना भारत को महिला क्रिकेट की महाशक्ति बना चुकी है।
दोनों जीतें दो युगों की नहीं, एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति हैं — विश्वास की, संघर्ष की, राष्ट्रगौरव की।

जब यह ट्रॉफी भारत ने जीती, तो हर घर का आँगन दीपोत्सव बन गया।
किसी ने हँसकर बधाई दी, किसी ने रोकर।
और 3 नवंबर की सुबह जब सूरज निकला, तो ऐसा लगा मानो उसकी पहली किरण कह रही हो —
“अब भारत की बेटियाँ इतिहास नहीं, भविष्य लिखेंगी।”

अब हर बच्ची के सपनों में बल्ला और तिरंगा साथ-साथ होंगे।
वह कहेगी — “मुझे स्मृति मंधाना बनना है… हरमनप्रीत जैसी कप्तान बनना है… दीप्ति जैसी ऑलराउंडर बनना है।”

यह मात्र एक जीत नहीं — यह उद्घोष है कि भारत की बेटियाँ अब किसी मंच की सीमित परिधि में नहीं बंधेंगी।
उनका क्षितिज अब आसमान नहीं — उसके भी पार है।

जय माँ भारती!