Wednesday, 15 October 2025

मेरी दीदी ऐसी नहीं हो सकती: बंगाल में इंसानियत का जनाज़ा

 पश्चिम बंगाल—मां दुर्गा की भूमि, शक्ति की आराधना का प्रदेश, रविंद्रनाथ टैगोर और सुभाष चंद्र बोस की धरती—आज बेटियों के लिए नरक बन चुकी है। दुर्गापुर का आईक्यू सिटी मेडिकल कॉलेज, 10 अक्टूबर 2025 की रात, इस पीड़ा का सबसे कड़वा सबूत है। 23 वर्षीय एमबीबीएस छात्रा, इंसानियत बचाने के लिए डॉक्टर बनने निकली, पांच दरिंदों के हाथों सामूहिक बलात्कार का शिकार बनी।

और उसके बाद क्या हुआ? हमारी महिला मुख्यमंत्री, हमारी “मेरी दीदी”, कहती हैं: “लड़की रात को बाहर क्यों निकली?”
ऐसी संवेदनहीनता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दीदी, यह आप कैसे कह सकती हैं? क्या आप सचमुच यह मानती हैं कि अपराधियों की फितरत बदल जाएगी अगर बेटियां घर की चारदीवारी में कैद रहें? क्या अपराधियों को लाइसेंस देने की यह नैतिकता है?

यह पहली बार नहीं है। 2012 की पार्क स्ट्रीट घटना, 2013 का मॉल मामला, 2015 में 72 वर्षीय नन के साथ बलात्कार, 2022 की हंसखाली की बर्बर हत्या—हर बार दोष पीड़िता पर ठहराया गया। बंगाल में बलात्कार, एसिड अटैक और यौन अपराधों में साल-दर-साल वृद्धि हो रही है। 2023 में राज्य में दर्ज बलात्कार मामले 1010, नाबालिक 27। एसिड अटैक के मामले 57, जो देश में सबसे अधिक हैं।

दीदी, आपकी संवेदनहीनता की हद देखिए—पीड़िता के जख्मों पर नमक छिड़कना और अपराधियों के हौंसले बढ़ाना। आपकी पार्टी की फेमिनिस्ट महिला नेता भी खामोश हैं। संसद में बेटियों के हक की बात करने वाले, अपने राज्य में बेटियों की चीख क्यों नहीं सुनते? क्या यह पाखंड नहीं, या चरम दुष्टता है?

रविवार, 10 अक्टूबर 2025 की रात:
23 वर्षीय छात्रा, दोस्त के साथ खाना खरीदने निकली। कॉलेज गेट पर फोन छीन लिया गया, घसीटा गया और जंगल में ले जाया गया। पांच दरिंदों ने सामूहिक बलात्कार किया। और पुलिस? या सरकार? किसी ने सुरक्षा नहीं दी।

दीदी, क्या आप यही सोचती हैं कि बेटियों को घर में कैद करना ही सुरक्षा है? क्या बंगाल में अपराधियों को खुली छूट दी जाएगी, बस इसलिए कि आप सोचती हैं पीड़िता दोषी है?

दुर्गापुर की यह घटना केवल बिंदु नहीं है, यह पूरे राज्य की नाकामी का प्रतीक है। हर साल, हर महीने, हर दिन—पीड़ितों के आंसू, उनकी चीखें, उनके जख्म आपकी संवेदनहीनता की वजह से बढ़ते हैं।

दीदी, यह सोच केवल महिला मुख्यमंत्री के लिए शर्मनाक नहीं है, यह मानवता की हत्या है। क्या हम स्वीकार करेंगे कि बेटियों की सुरक्षा और न्याय सिर्फ एक राजनीतिक वाक्य या आंकड़े बनकर रह गया है? क्या हम सहेंगे कि आपकी संवेदनहीनता अपराधियों को हौंसला देती रहे, और पीड़ित हमेशा दोषी बनी रहे?

गुंडों की हिम्मत, पुलिस की नींद, और आपकी संवेदनहीनता—तीनों ने मिलकर बंगाल में बेटियों के लिए नरक बना दिया है।
दुर्गापुर ही नहीं, हंसखाली, संदेशखाली, राणाघाट—हर जगह वही कहानी। हर जगह अपराधी बेखौफ। हर बार वही तर्क—पीड़िता दोषी, अपराधी बेकसूर।

अब सवाल यह है—मेरी दीदी, कब तक आप खुली बाज़ार में बेटियों के अपमान को सहेंगी? कब तक बेटियों को घर की चारदीवारी में कैद रहकर अपनी इज्जत बचानी होगी? कब तक अपराधी बेखौफ घूमते रहेंगे और आपकी सरकार उनका ढाल बनेगी?

पश्चिम बंगाल में नैतिकता का पतन नहीं हुआ, इंसानियत का जनाज़ा निकल चुका है।
अब वक्त है, जनता की आवाज़ उठाने का। सड़क से संसद तक, घर से हर मंच तक, बेटियों के हक के लिए लड़ना पड़ेगा। और हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह इस जनाज़े का विरोध करे।

मेरी दीदी, ऐसी नहीं हो सकती!
संवेदनहीनता की यह सीमा पार नहीं हो सकती। अपराधियों को बचाना, पीड़ित को दोषी ठहराना, मीडिया पर हमला—यह सब अस्वीकार्य है। बंगाल की बेटियों के लिए न्याय चाहिए, सुरक्षा चाहिए, और सबसे बड़ी आवश्यकता—संवेदनशील नेतृत्व की।