Sunday, 31 August 2025

जाति की प्यास बुझाने को मासूम का रक्त!

 राजस्थान की रेत में बहा वह मासूम का खून सिर्फ़ एक बच्चे का नहीं, बल्कि इस राष्ट्र के आत्मसम्मान पर किया गया प्रहार है। बाड़मेर की यह घटना हमें झकझोर देती है—सिर्फ़ आठ वर्ष के एक दलित बालक को इसलिए पीटा गया और पेड़ से उल्टा लटकाया गया क्योंकि उसने पानी का घड़ा छू लिया! सोचिए, यह 21वीं सदी का भारत है, जहाँ चाँद पर तिरंगा लहराता है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई में अभी भी जातिगत घृणा की जंजीरें इंसानियत का गला घोंट रही हैं।


भाखरपुरा गाँव में नरनाराम प्रजापत और देमाराम प्रजापत जैसे दरिंदों ने मानवता को शर्मसार कर दिया। पहले उस नन्हे से बालक को बाथरूम साफ़ करने और कचरा उठाने का आदेश दिया, और जब उसने प्यास से तड़पकर पानी माँगा और घड़े को छू लिया, तब उसके छोटे-से शरीर पर लाठियाँ बरसाईं। क्या यही धर्म है? क्या यही संस्कृति है? क्या किसी जलघट को छू लेने से जाति का अपमान हो जाता है?

जब बच्चा छटपटा रहा था, जब उसका शरीर हवा में उल्टा लटका कर पीटा जा रहा था, तब इस समाज की अंतरात्मा कहाँ सो रही थी? उसकी माँ पुरी देवी और दादी ने बीच-बचाव किया तो उन पर भी हमला कर दिया गया। क्या मातृत्व का दर्द भी इस पिशाच प्रवृत्ति को नहीं रोक पाया?

यह घटना सिर्फ़ अपराध नहीं है, यह पाप है, यह वह अधर्म है जिसे न समाज सहन कर सकता है और न ही राष्ट्र। "पानी का घड़ा" यहाँ प्रतीक है उस व्यवस्था का, जो आज भी कुछ हाथों को शुद्ध और कुछ को अशुद्ध मानती है। यह सोच हमें विभाजित करती है और भारत की आत्मा को घायल करती है।

सवाल यह है कि आखिर कब तक हम जाति की बेड़ियों में बँधे रहेंगे? कब तक किसी दलित, किसी शोषित, किसी वंचित को इंसान होने का अधिकार छीन लिया जाएगा? यह समय केवल संवेदना व्यक्त करने का नहीं, बल्कि प्रचंड रोष से उठ खड़े होने का है।

राजस्थान पुलिस ने एक आरोपी को गिरफ्तार किया है, दो हिरासत में हैं। लेकिन क्या इतनी ही कार्रवाई से न्याय मिलेगा? क्या पीढ़ियों से दलितों पर ढाए जा रहे अन्याय का प्रायश्चित इतनी आसानी से संभव है?

आज ज़रूरत है कि इस अपराध को सामान्य अपराध न मानकर ‘सामाजिक विद्रोह के अपराध’ के रूप में देखा जाए। कठोरतम दंड, सार्वजनिक निंदा और चेतना की क्रांति—यही इस ज़हर का उपचार है।

भारत का हर नागरिक इस नन्हे शिशु की पीड़ा को अपनी पीड़ा माने और प्रण ले कि इस देश में किसी जलघट को छूने पर कोई बच्चा फिर कभी अपमानित न हो। यह लड़ाई सिर्फ़ उस बच्चे की नहीं, बल्कि "भारत की आत्मा" की है।

यह अन्याय नहीं रुकेगा जब तक हम रौद्र बनकर अन्याय की जड़ों को उखाड़ न फेंकें।

 

Thursday, 28 August 2025

सिर्फ आँकड़े नहीं : 7,000 चीखें हर साल, 18 चिताएँ हर दिन

 क्या यह वही भारत है, जो अपनी बेटियों को आकाशगंगा तक उड़ते देखने का सपना देखता है? वही भारत, जहाँ बेटियां फौज की वर्दी पहनकर सरहद पर डटती हैं, अंतरिक्षयान को दिशा देती हैं और विज्ञान, कला, खेल हर क्षेत्र में परचम फहराती हैं? और क्या यही भारत है, जहाँ हर दिन अठारह बेटियां दहेज के दानवों की बलि चढ़ाई जाती हैं?


राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की चीखती हुई पंक्तियाँ बताती हैं—हर वर्ष सात हज़ार से अधिक बहनों की जिंदगियाँ दहेज के कारण बुझा दी जाती हैं। पिछले बीस वर्षों में डेढ़ लाख से अधिक चिताएँ जल चुकी हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्य आज मानो बेटियों की समाधि-स्थली बन चुके हैं।

यह आँकड़े ठंडी गिनती नहीं, बल्कि राख में बदल चुके सपनों की गवाही हैं। वैशाली की शिवांगी, बरेली की रानी, गाज़ियाबाद की मुस्कान, दिल्ली की कोमल और तिरुवर की रिद्धना—ये सब सिर्फ नाम नहीं, हमारे हृदय की धड़कनें थीं। परंतु उनकी साँसें दहेज की आग ने छीन लीं। किसी के पिता ने बेटी की चिता ससुराल की चौखट पर जलाई, किसी माँ ने अपनी आँखों के सामने लाल जोड़े में विदा की हुई संतान की राख समेटी। यह पीड़ा शब्दों में नहीं बाँधी जा सकती।

समाज की चुप्पी भी अपराध है।
जब अखबार में ऐसी खबरें आती हैं, हम पन्ना पलट देते हैं। टीवी पर सुनते हैं, आगे बढ़ जाते हैं। हमें फर्क क्यों नहीं पड़ता? क्या हमारी आत्मा इतनी कठोर हो चुकी है कि बेटियों की चीखें सुनाई ही नहीं देतीं? क्या हमने तय कर लिया है कि यह सब ‘न्यू नॉर्मल’ है—जहाँ शादी सौदे की मंडी बन चुकी है और बेटियों की जान की बोली लगती है?

कानून तो है—1961 का दहेज निषेध अधिनियम। पर यह कानून किताबों में कैद है। सच्चाई यह है कि आज तक एक भी दहेज हत्यारे को फाँसी की सज़ा नहीं मिली। पुलिस की ढिलाई, गवाहों का डर, अदालतों की सुस्ती और समाज की उदासीनता—ये सब मिलकर हत्यारों को निर्भीक बनाते हैं। उन्हें पता है कि कुछ दिन जेल में रहकर वे फिर दहेज की नई मंडी में लौट आएँगे।

पर सवाल है—क्या यह जिम्मेदारी केवल कानून की है?
नहीं। यह जिम्मेदारी हम सबकी है।

  • माता-पिता की, जो बेटियों को आत्मनिर्भर बनाने के बजाय विवाह-पूजा की बलिवेदी पर चढ़ा देते हैं।

  • बेटियों की, जो चुप्पी साध लेना धर्म समझती हैं।

  • बेटों और पुरुषों की, जो शादी को सौदा बना देते हैं और दहेज माँगना अपना अधिकार।

  • और समाज की, जो इन भिखारी मानसिकता वाले लोगों का बहिष्कार करने की जगह उनका स्वागत करता है।

दहेज लेना मर्दानगी नहीं, कायरता है।
सच्चा पुरुष वह है जो अपनी जीवनसंगिनी को सम्मान दे, न कि उसकी कीमत लगाए। विवाह कोई व्यापार नहीं, संस्कार है। जो पुरुष अपनी पत्नी को कीमत के तराजू पर तोलता है, वह न पौरुष का अधिकारी है, न सम्मान का।

आज आवश्यकता है कि बेटियां अपनी चुप्पी तोड़ें, माता-पिता उन्हें शिक्षा और आत्मनिर्भरता दें, समाज दहेज लेने वालों का बहिष्कार करे और न्याय व्यवस्था ऐसे अपराधियों को कठोरतम दंड दे। जब तक दहेज हत्याओं में फांसी की सज़ा की नजीर नहीं बनेगी, तब तक यह राक्षस दम नहीं तोड़ेगा।

भारत के पास विकल्प दो ही हैं—
या तो हम अपनी बेटियों की चिताओं की आँच को यूँ ही सहते रहें,
या फिर उस आग को हथियार बनाकर दहेज की इस बर्बर प्रथा को जला डालें।

यह निर्णय हमें लेना होगा। क्योंकि सवाल यही है—कब तक जलेंगी हमारी बेटियां?

कूटनीति के कुरुक्षेत्र में भारत का संकल्प अडिग

 “जब एक उभरती हुई शक्ति अपने पैरों पर खड़ी होती है, तो विश्व की पुरानी महाशक्तियाँ कांपने लगती हैं। आज भारत खड़ा है, और अमेरिका काँप रहा है।”


अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में भारत के खिलाफ जिस तरह की धमकीभरी भाषा का इस्तेमाल किया है, वह न केवल असंवैधानिक है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के बुनियादी शिष्टाचार का भी अपमान है। रूस से तेल खरीदने पर भारत को भारी-भरकम जुर्माने की धमकी देना और भारत से आयातित सभी वस्तुओं पर 25% टैरिफ थोपना—यह कौन-सी दोस्ती है? और इससे भी बड़ा प्रश्न—क्या यह अमेरिका के हित में है?

भारत का स्पष्ट संदेश—हम दबाव में नहीं झुकते!

ट्रंप की गीदड़भभकी के बाद भारत ने दो टूक शब्दों में कह दिया—हम अपनी ऊर्जा नीति अपनी ज़रूरतों और राष्ट्रीय हितों के आधार पर तय करते हैं, न कि किसी व्हाइट हाउस की खिड़की से आए आदेश पर। ऊर्जा विशेषज्ञ नरेंद्र तनेजा के अनुसार, अगर अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते भारत रूस से तेल खरीद बंद भी करता है, तो इसका नुकसान भारत से कहीं ज्यादा अमेरिका को होगा, क्योंकि वह खुद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल आयातक है।

यानी ट्रंप की धमकी का परिणाम होगा—तेल की कीमतें आसमान पर और अमेरिका की महंगाई बेलगाम।

ट्रंप की नीति: बिना रोडमैप की धमाकेदार गाड़ी

मशहूर उद्योगपति और टेस्टबेड चेयरमैन किर्क लुबिमोव ने ट्रंप की नीतियों को “रणनीतिक आत्महत्या” करार दिया है। उन्होंने करारा तंज कसते हुए कहा—“अगर अमेरिका चीन के प्रभुत्व को चुनौती देना चाहता है, तो भारत ही एकमात्र वास्तविक विकल्प है। लेकिन ट्रंप तो 50 सेंट का टूथब्रश भी खुद बनाने को तैयार नहीं!”

यह कोई नई बात नहीं कि अमेरिका ने हमेशा भारत की स्वतंत्र विदेश नीति से असहजता महसूस की है। लेकिन आज का भारत 90 के दशक का आर्थिक गुलाम भारत नहीं, जो वाशिंगटन से हर फैसले की स्वीकृति माँगे।

ट्रंप के तंज पर भारत का करारा जवाब—“हम डूबती नहीं, उभरती अर्थव्यवस्था हैं”

राष्ट्रपति ट्रंप ने जब यह कहा कि “भारत और रूस अपनी मरी हुई अर्थव्यवस्थाओं के साथ डूब सकते हैं,” तो भारत ने भी जवाब देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने संसद में गर्जना करते हुए कहा—“भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है, जो जल्द ही तीसरे स्थान पर होगा। हम Global Growth Engine बन चुके हैं, और वैश्विक विकास में हमारा 16% योगदान है।”

क्या ट्रंप को यह याद दिलाना पड़ेगा कि भारत अब ‘Third World Country’ नहीं रहा? यह वही भारत है, जो अपनी जनसंख्या, बाज़ार, रक्षा और विज्ञान में अमेरिका को भी टक्कर देने की स्थिति में है।

रूस से तेल खरीद—हक़ का व्यापार, न कि अपराध

भारत मई 2025 में रूस से रोज़ाना लगभग 1.96 मिलियन बैरल तेल आयात कर रहा है, जो उसके कुल आयात का 38% है। यूक्रेन युद्ध के बाद रूस से सस्ते तेल की आपूर्ति भारत के लिए एक आर्थिक संजीवनी रही है। तो क्या अमेरिका को तकलीफ इस बात से है कि भारत ने उनकी अनुमति के बिना अपने राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखा?

सच तो यह है कि भारत अब केवल एक “विकसित होने वाला देश” नहीं, बल्कि “नीतिनिर्धारक राष्ट्र” बन चुका है।

क्या अमेरिका एशिया में प्रभाव खो रहा है?

विश्लेषक मानते हैं कि ट्रंप की टकराव की नीति केवल भारत ही नहीं, बल्कि अमेरिका के दीर्घकालिक रणनीतिक हितों को चोट पहुँचा रही है। किर्क लुबिमोव ने चेताया—“ट्रंप का कार्यकाल इन देशों के लिए अस्थायी झटका है, लेकिन वे दीर्घकालिक रणनीति से चलते हैं।” यानी अमेरिका आज जो गड्ढा खोद रहा है, उसमें वह खुद गिर सकता है।

अमेरिका अगर चीन को नियंत्रित करना चाहता है, तो उसे भारत के साथ आर्थिक साझेदारी चाहिए, साजिश नहीं। लेकिन ट्रंप भारत को ‘शत्रु’ मानकर वही कर रहे हैं, जो चीन की सबसे बड़ी चाहत थी—भारत और अमेरिका को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना।

निष्कर्ष: भारत अब आदेश नहीं लेता, संप्रभु निर्णय करता है

यह समय दुनिया को यह याद दिलाने का है कि भारत अब वो देश नहीं, जो आयात और सहायता के लिए दर-दर भटके। यह भारत अब अपना तेल भी खुद तय करता है, अपने व्यापारिक साझेदार भी, और अपने आत्मसम्मान की रक्षा भी।

डोनाल्ड ट्रंप सुन लें—भारत न तो दबाव में आता है, न धमकियों से डरता है। क्योंकि भारत केवल उभरती नहीं, अब जाग चुकी अर्थव्यवस्था है। और जो राष्ट्र जागता है, वह झुकता नहीं—वह दुनिया की दिशा तय करता है।

“हम वही जो कूटनीति से रण रचें,
और समय के साथ स्वाभिमान रचें।
बात जब सम्मान की आती है,
हम व्यापार नहीं, प्रतिकार रचें!”

यह लेख 3 अगस्त 2025 को प्रकाशित हुआ था।

This article was published on 3rd August 2025.