Thursday, 17 July 2025

संस्कृति बोलती रही, करुणा मौन थी

हमारे देश में 'संस्कृति' शब्द का ऐसा उपयोग हो रहा है जैसे यह कोई राजनीतिक नारा हो—जहाँ ज़रूरत पड़े, फेंक दो सामने।
मुद्दा चाहे मॉडर्न कपड़ों का हो, किसी मूर्ति की ऊँचाई का हो, या किसी लड़की की हँसी का — तुरन्त 'भारतीय संस्कृति' की लाठी उठ जाती है।
लेकिन जैसे ही कोई ज़िम्मेदारी का सवाल आता है — कोई मानवता, करुणा, सेवा, सहनशीलता या त्याग का प्रसंग — तो यही संस्कृति अचानक बहरापन ओढ़ लेती है।


आगरा की घटना ने यह सारा ढोंग उघाड़कर रख दिया।
ताजमहल घूमने आया एक परिवार अपने पैरालाइज्ड बुज़ुर्ग को कार में हाथ-पैर बांधकर बंद कर गया।
दम घुटने की हालत में वो बुज़ुर्ग पड़े रहे — न कोई पानी, न देखभाल — बस गाड़ी में बंद एक ‘प्राणी’ की तरह।
अगर कुछ गाइडों की सजगता न होती, तो शायद वह बुज़ुर्ग इस "संस्कृति-प्रेमी" परिवार के दर्शन काल में ही प्राण त्याग चुके होते।

और जवाब क्या मिला?
“वो पहले से पैरालाइज थे, इसलिए बांधकर छोड़ा।”

बस? इतना ही? यही है हमारी संस्कृति?
क्या अब ‘देखभाल’ का अर्थ केवल ‘बांध देना’ रह गया है?

हमारे ग्रंथों में कहा गया —
“श्रवण कुमार के कंधों पर संस्कार चलते थे।”
आज की पीढ़ी के पास SUV है, पर मनुष्यता नहीं।
ताजमहल में तस्वीरें ली जा रही थीं, और वहीं कार में एक जीवन सिसक रहा था।
किसी को अंतर नहीं पड़ा — क्योंकि हमने 'संस्कृति' को व्यवहार नहीं, सुरक्षा कवच बना लिया है — अपने पापों की ढाल।

सच यह है कि हम संस्कृति को जीते नहीं,
बस संस्कृति का शोर करते हैं।

हमारे पास सोशल मीडिया पर उपदेश हैं,
टेलीविज़न डिबेट में गला फाड़ने की ऊर्जा है,
लेकिन अपने ही परिवार के असहाय सदस्य को इंसान समझने की फुरसत नहीं।

गाइडों ने कार का लॉक तोड़ा, जान बचाई।
क्योंकि वे संस्कृति नहीं, ‘संवेदना’ जानते थे।

अब सवाल सीधा है —
यदि संस्कृति केवल कपड़ों, खानपान, मूर्तियों और नारों तक सीमित है,
तो वह सिर्फ़ ध्वनि है — न मूल्य है, न आत्मा।

हमें तय करना होगा —
हम 'संस्कृति' के नाम पर कब तक केवल ढोल पीटते रहेंगे?
कब वह दिन आएगा जब यह शब्द केवल शब्द न रहकर व्यवहार बन जाएगा?

जिस दिन हर बुज़ुर्ग को सम्मान, हर निर्बल को सहारा, और हर मनुष्य को मनुष्य समझा जाएगा —
तब हम कह सकेंगे — "हाँ, यही है हमारी संस्कृति।"
आज नहीं। बिल्कुल नहीं।

Wednesday, 16 July 2025

जला दो ये मौन — सौम्यश्री मर चुकी है!"

 "ये समाज क्या सचमुच मर चुका है? क्या हमारी आत्मा इतनी सस्ती हो चुकी है कि अब बेटियों की चीखें तब तक सुनाई नहीं देतीं जब तक वे राख बनकर हवाओं में घुल न जाएं?"

उड़ीसा के बालासोर जिले की 20 साल की बीएड छात्रा सौम्यश्री मिश्री ने आत्महत्या नहीं की — उसे इस सड़ चुके समाज, इस दुराचार से सने तंत्र, और संवेदनहीनता की कीचड़ में लथपथ व्यवस्था ने जला डाला।

उसका अपराध क्या था?


कि उसने अपनी इज्जत को 'नंबरों' और 'अटेंडेंस' के बदले सौंपने से मना कर दिया?
कि उसने 'ना' कहा?
या फिर कि उसने वह हिम्मत दिखाई जो इस मुल्क की लाखों लड़कियाँ डर से नहीं दिखा पातीं?

गुरु नहीं, नरपिशाच था समीर साहू

जिसे शिक्षक कहते हैं, वह 'एचओडी' समीर कुमार साहू, सौम्यश्री को महीनों से गलत नजरों से देख रहा था। उससे अनुचित मांगें कर रहा था। जब उसने विरोध किया, तो उसकी अटेंडेंस काटी गई, परीक्षा में फेल किया गया, मानसिक उत्पीड़न का इतना भयानक दौर चला कि सौम्यश्री टूटने लगी।

लेकिन वह झुकी नहीं। उसने लिखा, बोला, लड़ा — कॉलेज प्रिंसिपल दिलीप घोष को शिकायत दी, सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली, शासन-प्रशासन तक गुहार लगाई। लेकिन ये निकम्मा तंत्र तब तक नहीं हिला जब तक उसकी देह लपटों में बदल नहीं गई।

वो जलती रही और हम देखते रहे

12 जुलाई 2025 को सौम्यश्री ने प्रिंसिपल ऑफिस के सामने खुद पर पेट्रोल डालकर आग लगा ली।
95% जली।
एम्स भुवनेश्वर में वेंटिलेटर पर पड़ी रही।
14 जुलाई की रात 11:30 पर मौत हो गई।

लेकिन टीवी पर नहीं चला।
कोई कैमरा नहीं पहुंचा।
कोई राष्ट्रीय एंकर, जो दिन-रात एक्टिंग करने वालों के चोट पर 5 घंटे की बहस करता है — वो नहीं पहुंचा।

क्यों?

क्योंकि सौम्यश्री की चीखें 'टीआरपी' नहीं थीं।
उसकी राख में 'ब्रेकिंग न्यूज़' का मसाला नहीं था।
वो न्यूज़ बिकाऊ नहीं थी, बस जली हुई थी।

क्या बेटियाँ अब केवल तब सुनी जाएँगी जब वे जल मरें?

आज हर कॉलोनी, हर कॉलेज, हर दफ्तर में कोई न कोई सौम्यश्री अकेली लड़ रही है। उसके ऊपर कोई साहू बैठा है, कोई दिलीप घोष बैठा है, कोई 'प्रशासन' उसकी आवाज़ दबा रहा है। लेकिन जब वो खुद को आग लगा ले, तब हम अचानक ‘सदमे’ में आ जाते हैं।

सवाल यह है: सदमे में आप हैं या बेशर्मी में?

इस मुल्क में नारी के खिलाफ अपराध 'नया सामान्य' बन चुका है

कुछ दिनों पहले पुरुषों की आत्महत्या की खबरें आईं—अतुल, सुभाष, राजा रघुवंशी। उनपर बहस होनी चाहिए, लेकिन सोशल मीडिया ने उसे स्त्री विरोध के ट्रेंड में बदल दिया। जैसे सौम्यश्री जैसी लड़कियाँ अब ‘पुरानी बात’ हो गई हैं। जैसे महिलाओं के साथ बलात्कार, शोषण, हत्या अब किसी को झकझोरते ही नहीं।

क्या आँकड़े चाहिए?

एनसीआरबी कहता है: 2022 में 31,516 रेप केस। हर दिन 86। हर घंटे 3 से ज्यादा।
लेकिन हम इतने मूर्छित हो चुके हैं कि अब इन आँकड़ों पर आक्रोश नहीं आता।
क्योंकि जबतक चीखें ग्लैमर में लिपटी न हों, हम उन्हें सुनते नहीं।

माफ़ कीजिए—अब खामोशी अपराध है

सौम्यश्री अकेली लड़ी।
उसने बताया, सबूत दिए, सोशल मीडिया पर खुलेआम लिखा — “अगर न्याय नहीं मिला तो जान दे दूंगी।”
लेकिन किसी ने नहीं सुना।

अब जब वो नहीं है, हम शोक में पोस्ट डाल रहे हैं।

बिलकुल नहीं! अब समय शोक का नहीं, क्रांति का है।

अब बहुत हो चुका—या तो जागो, या फिर चुपचाप अगली चिता देखो

  • हर कॉलेज में महिलाओं के लिए कड़े, जवाबदेह शिकायत निवारण तंत्र हों।

  • हर शिकायत पर तुरंत कार्रवाई हो।

  • दोषी चाहे कोई भी हो — टीचर, प्रिंसिपल, अफ़सर — कानून की लाठी बिना रुके चले।

  • मीडिया को बिकाऊ खबरें नहीं, जलती बेटियों की चीखों को प्लेटफ़ॉर्म देना होगा।

और समाज?

तुम चुप मत रहो।
क्योंकि अगली बार सौम्यश्री की जगह तुम्हारी बेटी, तुम्हारी बहन, तुम्हारी छात्रा हो सकती है।

अंत नहीं—अभियान की शुरुआत है

अगर सौम्यश्री की मौत के बाद भी आप चुप हैं, तो यकीन मानिए — अब आप भी इस हत्यारे तंत्र का हिस्सा हैं।
बेटियाँ तब तक अकेली मरती रहेंगी जब तक हम collectively चीखना नहीं सीखेंगे।

अब सवाल ये नहीं कि सौम्यश्री क्यों मरी।

अब सवाल ये है—

क्या आप जिंदा हैं?